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१९६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
ऐसा ही समयसारके कलशमें कहा है : —
रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते।
उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।।२२१।।
इसका अर्थः — जो जीव रागादिककी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तपना मानते हैं,
वे जीव - शुद्धज्ञानसे रहित अन्धबुद्धि है जिनकी — ऐसे होते हुए मोहनदीके पार नहीं उतरते
हैं।
तथा समयसारके ‘सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार’ में — जो आत्माको अकर्ता मानता है और
यह कहता है कि कर्म ही जगाते-सुलाते हैं, परघातकर्मसे हिंसा है, वेदकर्मसे अब्रह्म है, इसलिये
कर्म ही कर्ता है — उस जैनीको सांख्यमती कहा है। जैसे सांख्यमती आत्माको शुद्ध मानकर
स्वच्छन्दी होता है, उसी प्रकार यह हुआ।
तथा इस श्रद्धानसे यह दोष हुआ कि रागादिकको अपना नहीं जाना, अपनेको अकर्ता
माना, तब रागादिक होनेका भय नहीं रहा तथा रागादिकको मिटानेका उपाय करना नहीं
रहा; तब स्वच्छन्द होकर खोटे कर्मोंका बन्ध करके अनन्त संसारमें रुलता है।
यहाँ प्रश्न है कि समयसारमें ही ऐसा कहा है : —
‘‘वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः१।’’
इसका अर्थ : — वर्णादिक अथवा रागादिक भाव हैं वे सभी इस आत्मासे भिन्न हैं।
तथा वहीं रागादिकको पुद्गलमय कहा है, तथा अन्य शास्त्रोंमें भी आत्माको रागादिकसे
भिन्न कहा है; सो वह किस प्रकार है?
उत्तर : — रागादिकभाव परद्रव्यके निमित्तसे औपाधिकभाव होते हैं, और यह जीव
उन्हें स्वभाव जानता है। जिसे स्वभाव जाने उसे बुरा कैसे मानेगा? उसके नाशका उद्यम
किसलिये करेगा? इसलिये यह श्रद्धान भी विपरीत है। उसे छुड़ानेके लिये स्वभावकी अपेक्षा
रागादिकको भिन्न कहा है और निमित्तकी मुख्यतासे पुद्गलमय कहा है। जैसे — वैद्य रोग
मिटाना चाहता है; यदि शीतकी अधिकता देखता है तब उष्ण औषधि बतलाता है, और
यदि आतापकी अधिकता देखता है तब शीतल औषधि बतलाता है। उसी प्रकार श्रीगुरु
रागादिक छुड़ाना चाहते हैं; जो रागादिकको परका मानकर स्वच्छन्द होकर निरुद्यमी होता
१. वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः।
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽभी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात्।।(समयसार कलश ३७)