Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ १९५
केवलज्ञानका अभाव ही है; परन्तु कर्मका निमित्त मिटने पर सर्वदा केवलज्ञान हो जाता है;
इससिये सदाकाल आत्माका स्वभाव केवलज्ञान कहा जाता है, क्योंकि ऐसी शक्ति सदा पायी
जाती है। व्यक्त होने पर स्वभाव व्यक्त हुआ कहा जाता है।
तथा जैसे शीतल स्वभावके कारण उष्ण जलको शीतल मानकर पानादि करे तो जलना
ही होगा; उसी प्रकार केवलज्ञानस्वभावके कारण अशुद्ध आत्माको केवलज्ञानी मानकर अनुभव
करे तो दुःखी होगा।
इसप्रकार जो आत्माका केवलज्ञानादिरूप अनुभव करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं।
तथा रागादिक भाव अपनेको प्रत्यक्ष होने पर भी भ्रमसे आत्माको रागादिरहित मानते
हैं। सो पूछते हैं कि ये रागादिक तो होते दिखाई देते हैं, ये किस द्रव्यके अस्तित्वमें हैं?
यदि शरीर या कर्मरूप पुद्गलके अस्तित्वमें हों तो ये भाव अचेतन या मूर्तिक होंगे; परन्तु
ये रागादिक तो प्रत्यक्ष चेतनतासहित अमूर्तक भाव भासित होते हैं। इसलिये ये भाव आत्माके
ही हैं।
यही समयसार कलशमें कहा है :
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयो
रज्ञायाः प्रकृ ते स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृतिः
नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः
।।२०३।।
इसका अर्थ यह हैरागादिरूप भावकर्म है सो किसीके द्वारा नहीं किया गया ऐसा
नहीं है, क्योंकि यह कार्यभूत है। तथा जीव और कर्मप्रकृति इन दोनोंका भी कर्तव्य नहीं
है, क्योंकि ऐसा हो तो अचेतन कर्मप्रकृतिको भी उस भावकर्मका फल
सुख-दुःखका भोगना
होगा; सो यह असम्भव है। तथा अकेली कर्मप्रकृतिका भी यह कर्तव्य नहीं है, क्योंकि
उसके अचेतनपना प्रगट है। इसलिये इस रागादिकका जीव ही कर्ता है और यह रागादिक
जीवका ही कर्म है; क्योंकि भावकर्म तो चेतनाका अनुसारी है, चेतना बिना नहीं होता, और
पुद्गल ज्ञाता है नहीं।
इसप्रकार रागादिभाव जीवके अस्तित्वमें हैं।
अब, जो रागादिभावोंका निमित्त कर्मको ही मानकर अपनेको रागादिकका अकर्ता मानते
हैं वे कर्ता तो आप हैं; परन्तु आपको निरुद्यमी होकर प्रमादी रहना है, इसलिये कर्मका
ही दोष ठहराते हैं, सो यह दुःखदायक भ्रम है।