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१९८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रत्यक्ष देखा जाता है। ज्ञानावरणादिकसे ज्ञानादिकका घात देखा जाता है, शरीर द्वारा उसके
अनुसार अवस्थाएँ होती देखी जाती हैं, फि र बन्धन कैसे नहीं है? यदि बन्धन न हो तो
मोक्षमार्गी इनके नाशका उद्यम किसलिये करे?
यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोंमें आत्माको कर्म – नोकर्मसे भिन्न अबद्धस्पृष्ट कहा है?
उत्तरः — सम्बन्ध अनेक प्रकारके हैं। वहाँ तादात्म्यसम्बन्धकी अपेक्षा आत्माको कर्म –
नोकर्मसे भिन्न कहा है, क्योंकि द्रव्य पलटकर एक नहीं हो जाते, और इसी अपेक्षासे अबद्धस्पृष्ट
कहा है। अथवा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकी अपेक्षा बन्धन है ही, उनके निमित्तसे आत्मा
अनेक अवस्थाएँ धारण करता ही है; इसलिये अपनेको सर्वथा निर्बन्ध मानना मिथ्यादृष्टि है।
यहाँ कोई कहे कि हमें तो बन्ध-मुक्तिका विकल्प करना नहीं, क्योंकि शास्त्रमें ऐसा
कहा है : —
‘‘जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि सो बंधियहि णिभंतु१।
अर्थ : — जो जीव बँधा और मुक्त हुआ मानता है वह निःसन्देह बँधता है।
उससे कहते हैंः — जो जीव केवल पर्यायदृष्टि होकर बन्ध-मुक्त अवस्थाको ही मानते
हैं, द्रव्यस्वभावका ग्रहण नहीं करते; उन्हें ऐसा उपदेश दिया है कि द्रव्यस्वभावको न जानता
हुआ जो जीव बँधा-मुक्त हुआ मानता है वह बँधता है। तथा यदि सर्वथा ही बन्ध-मुक्ति
न हो तो यह जीव बँधता है — ऐसा क्यों कहें? तथा बन्धके नाशका – मुक्त होनेका उद्यम
किसलिये किया जाये? और किसलिये आत्मानुभव किया जाये? इसलिये द्रव्यदृष्टिसे एक दशा
है और पर्यायदृष्टिसे अनेक अवस्थाएँ होती हैं — ऐसा मानना योग्य है।
ऐसे ही अनेक प्रकारसे केवल निश्चयनयके अभिप्रायसे विरुद्ध श्रद्धानादि करता है।
जिनवाणीमें तो नाना नयोंकी अपेक्षासे कहीं कैसा, कहीं कैसा निरूपण किया है; यह
अपने अभिप्रायसे निश्चयनयकी मुख्यतासे जो कथन किया हो — उसीको ग्रहण करके मिथ्यादृष्टि
धारण करता है।
तथा जिनवाणीमें तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता होने पर मोक्षमार्ग कहा है; सो
इसके सम्यग्दर्शन-ज्ञानमें सात तत्त्वोंका श्रद्धान और जानना होना चाहिये सो उनका विचार नहीं
है, और चारित्रमें रागादिक दूर करना चाहिये उसका उद्यम नहीं है; एक अपने आत्माके शुद्ध
१. जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि णिभंतु।
सहज-सरूवइ जइ रमहि तो पावहि सिव संतु।।(योगसार, दोहा ८७)