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सातवाँ अधिकार ][ १९९
अनुभवनको ही मोक्षमार्ग जानकर सन्तुष्ट हुआ है। उसका अभ्यास करनेको अन्तरंगमें ऐसा
चिंतवन करता रहता है कि ‘मैं सिद्धसमान शुद्ध हूँ, केवलज्ञानादि सहित हूँ, द्रव्यकर्म-नोकर्म
रहित हूँ, परमानंदमय हूँ, जन्म-मरणादि दुःख मेरे नहीं हैं’; इत्यादि चिंतवन करता है।
सो यहाँ पूछते हैं कि यह चिंतवन यदि द्रव्यदृष्टिसे करते हो तो द्रव्य तो शुद्ध-
अशुद्ध सर्व पर्यायोंका समुदाय है; तुम शुद्ध ही अनुभवन किसलिये करते हो? और पर्यायदृष्टिसे
करते हो तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुद्ध पर्याय है; तुम अपनेको शुद्ध कैसे मानते हो?
तथा यदि शक्तिअपेक्षा शुद्ध मानते हो तो ‘‘मैं ऐसा होने योग्य हूँ — ऐसा मानो; ‘मैं
ऐसा हूँ’ — ऐसा क्यों मानते हो? इसलिये अपनेको शुद्धरूप चिंतवन करना भ्रम है। कारण
कि तुमने अपनेको सिद्धसमान माना तो यह संसार-अवस्था किसकी है? और तुम्हारे केवलज्ञानादि
हैं तो यह मतिज्ञानादिक किसके हैं? और द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित हो तो ज्ञानादिककी व्यक्त्तता
क्यों नहीं है? परमानन्दमय हो तो अब कर्तव्य क्या रहा? जन्म-मरणादि दुःख नहीं हैं तो
दुःखी कैसे होते हो? — इसलिये अन्य अवस्थामें अन्य अवस्था मानना भ्रम है।
यहाँ कोई कहे कि शास्त्रमें शुद्ध चिंतवन करनेका उपदेश कैसे दिया है?
उत्तरः — एक तो द्रव्य-अपेक्षा शुद्धपना है, एक पर्याय-अपेक्षा शुद्धपना है। वहाँ द्रव्य-
अपेक्षा तो परद्रव्यसे भिन्नपना और अपने भावोंसे अभिन्नपना — उसका नाम शुद्धपना है।
और पर्याय-अपेक्षा औपाधिकभावोंका अभाव होनेका नाम शुद्धपना है। सो शुद्ध चिंतवनमें
द्रव्य-अपेक्षा शुद्धपना ग्रहण किया है। वही समयसार व्याख्यामें कहा है : —
‘‘एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते।’’
(गाथा – ६की टीका)
इसका अर्थ यह है कि आत्मा प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है। सो यही समस्त परद्रव्योंके
भावोंसे भिन्नपने द्वारा सेवन किया गया शुद्ध ऐसा कहा जाता है।
तथा वहीं ऐसा कहा है : —
‘‘समस्तकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः’’
(गाथा ७३की टीका)
अर्थः — समस्त ही कर्ता, कर्म आदि कारकोंके समूहकी प्रक्रियासे पारंगत ऐसी निर्मल
अनुभूति, जो अभेदज्ञान तन्मात्र है, उससे शुद्ध है। इसलिये ऐसा शुद्ध शब्दका अर्थ जानना।
तथा इसीप्रकार केवल शब्दका अर्थ जानना — ‘जो परभावसे भिन्न निःकेवल आप