Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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उपाध्यायका स्वरूप
तथा जो बहुत जैन-शास्त्रोंके ज्ञाता होकर संघमें पठन-पाठनके अधिकारी हुए हैं; तथा
जो समस्त शास्त्रोंका प्रयोजनभूत अर्थ जान एकाग्र हो अपने स्वरूपको ध्याते हैं, और यदि
कदाचित् कषाय अंशके उदयसे वहाँ उपयोग स्थिर न रहे तो उन शास्त्रोंको स्वयं पढ़ते हैं
तथा अन्य धर्मबुद्धियोंको पढ़ाते हैं।
ऐसे समीपवर्ती भव्योंको अध्ययन करानेवाले उपाध्याय, उनको हमारा नमस्कार हो।
साधुका स्वरूप
पुनश्च, इन दो पदवी धारकोंके बिना अन्य समस्त जो मुनिपदके धारक हैं तथा जो
आत्मस्वभावको साधते हैं; जैसे अपना उपयोग परद्रव्यमें इष्ट-अनिष्टपना मानकर फँसे नहीं व
भागे नहीं वैसे उपयोगको सधाते हैं और बाह्यमें उनके साधनभूत तपश्चरणादि क्रियाओंमें प्रवर्तते
हैं तथा कदाचित् भक्ति
वंदनादि कार्योंमें प्रवर्तते हैं।
ऐसे आत्मस्वभावके साधक साधु हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।
पूज्यत्वका कारण
इस प्रकार इन अरहंतादिका स्वरूप है सो वीतराग-विज्ञानमय है। उसहीके द्वारा
अरहंतादिक स्तुतियोग्य महान हुए हैं। क्योंकि जीवतत्त्वकी अपेक्षा तो सर्व ही जीव समान
हैं, परन्तु रागादि विकारोंसे व ज्ञानकी हीनतासे तो जीव निन्दायोग्य होते हैं और रागादिककी
हीनतासे व ज्ञानकी विशेषतासे स्तुतियोग्य होते हैं; सो अरहंत-सिद्धोंके तो सम्पूर्ण रागादिकी
हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे सम्पूर्ण वीतराग-विज्ञानभाव संभव है और आचार्य,
उपाध्याय तथा साधुओंको एकदेश रागादिककी हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे एकदेश
वीतराग-विज्ञान संभव है।
इसलिये उन अरहंतादिकको स्तुतियोग्य महान जानना।

पुनश्च, ये जो अरहंतादिक पद हैं उनमें ऐसा जानना कि
मुख्यरूपसे तो तीर्थंकरका
और गौणरूपसे सर्वकेवलीका प्राकृत भाषामें अरहंत तथा संस्कृतमें अर्हत् ऐसा नाम जानना।
तथा चौदहवें गुणस्थानके अनंतर समयसे लेकर सिद्ध नाम जानना। पुनश्च, जिनको आचार्यपद
हुआ हो वे संघमें रहें अथवा एकाकी आत्मध्यान करें अथवा एकाविहारी हों अथवा आचार्योंमें
भी प्रधानताको प्राप्त करके गणधरपदवीके धारक हों
उन सबका नाम आचार्य कहते हैं।
पुनश्च, पठन-पाठन तो अन्य मुनि भी करते हैं, परन्तु जिनको आचार्यों द्वारा दिया गया
४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक