ममत्व नहीं करते, तथा जो परद्रव्य व उनके स्वभाव ज्ञानमें प्रतिभाषित होते हैं उन्हें जानते
तो हैं, परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते; शरीरकी अनेक अवस्थाएँ होती
हैं, बाह्य नाना निमित्त बनते हैं, परन्तु वहाँ कुछ भी सुख-दुःख नहीं मानते; तथा अपने
योग्य बाह्य क्रिया जैसे बनती हैं वैसे बनती हैं, खींचकर उनको नहीं करते; तथा अपने
उपयोगको बहुत नहीं भ्रमाते हैं, उदासीन होकर निश्चलवृत्तिको धारण करते हैं; तथा कदाचित्
मंदरागके उदयसे शुभोपयोग भी होता है
उदयका अभाव होनेसे हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तो अस्तित्व ही नहीं रहा है; तथा
ऐसी अन्तरंग (अवस्था) होने पर बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राधारी हुए हैं, शरीरका सँवारना आदि
विक्रियाओंसे रहित हुए हैं, वनखण्डादिमें वास करते हैं, अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डित पालन
करते हैं; बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, बारह प्रकारके तपोंको आदरते हैं, कदाचित्
ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् निश्चल होते हैं, कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओंमें
प्रवर्तते हैं, कदाचित् मुनिधर्मके सहकारी शरीरकी स्थितिके हेतु योग्य आहार-विहारादि क्रियाओंमें
सावधान होते हैं।
धर्मके लोभी अन्य जीव-याचक उनको देखकर राग अंशके उदयसे करुणाबुद्धि हो तो उनको
धर्मोपदेश देते हैं, जो दीक्षाग्राहक हैं उनको दीक्षा देते हैं, जो अपने दोषोंको प्रगट करते
हैं, उनको प्रायश्चित्त विधिसे शुद्ध करते हैं।