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सातवाँ अधिकार ][ २०५
शुभोपयोगसे स्वर्गादि हों, अथवा भली वासनासे या भले निमित्तसे कर्मके स्थिति-अनुभाग
घट जायें तो सम्यक्त्वादिकी भी प्राप्ति हो जाये। और अशुभोपयोगसे नरक-निगोदादि हों,
अथवा बुरी वासनासे या निमित्तसे कर्मके स्थिति-अनुभाग बढ़ जायें तो सम्यक्त्वादिक महा
दुर्लभ हो जायें।
तथा शुभोपयोग होनेसे कषाय मन्द होती है और अशुभोपयोग होनेसे तीव्र होती है;
सो मन्दकषायका कार्य छोड़कर तीव्रकषायका कार्य करना तो ऐसा है जैसे कड़वी वस्तु न
खाना और विष खाना। यो यह अज्ञानता है।
फि र वह कहता है — शास्त्रमें शुभ-अशुभको समान कहा है, इसलिये हमें तो विशेष
जानना योग्य नहीं है?
समाधानः — जो जीव शुभोपयोगको मोक्षका कारण मानकर उपादेय मानते हैं और
शुद्धोपयोगको नहीं पहिचानते, उन्हें शुभ-अशुभ दोनोंको अशुद्धताकी अपेक्षा व बन्धकारणकी
अपेक्षा समान बतलाया है।
तथा शुभ-अशुभका परस्पर विचार करें तो शुभभावोंमें कषाय मन्द होती है, इसलिये
बन्ध हीन होता है; अशुभभावोंमें कषाय तीव्र होती है, इसलिये बन्ध बहुत होता है। इस
प्रकार विचार करने पर अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्तमें शुभको भला भी कहा जाता है। जैसे —
रोग तो थोड़ा या बहुत बुरा ही है, परन्तु बहुत रोगकी अपेक्षा थोड़े रोगको भला भी कहते
हैं।
इसलिये शुद्धोपयोग न हो, तब अशुभसे छूटकर शुभमें प्रवर्तना योग्य है; शुभको
छोड़कर अशुभमें प्रवर्तना योग्य नहीं है।
फि र वह कहता है — कामादिक या क्षुधादिक मिटानेकी अशुभरूप प्रवृत्ति तो हुए बिना
रहती नहीं है, और शुभ प्रवृत्ति इच्छा करके करनी पड़ती है; ज्ञानीको इच्छा नहीं चाहिये,
इसलिये शुभका उद्यम नहीं करना?
उत्तर : — शुभ प्रवृत्तिमें उपयोग लगनेसे तथा उसके निमित्तसे विरागता बढ़नेसे
कामादिक हीन होते हैं और क्षुधादिकमें भी संक्लेश थोड़ा होता है। इसलिये शुभोपयोगका
अभ्यास करना। उद्यम करने पर भी यदि कामादिक व क्षुधादिक पीड़ित करते हैं तो उनके
अर्थ जिससे थोड़ा पाप लगे वह करना। परन्तु शुभोपयोगको छोड़कर निःशंक पापरूप प्रवर्तन
करना तो योग्य नहीं है।