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२०६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
और तू कहता है — ज्ञानीके इच्छा नहीं है और शुभोपयोग इच्छा करनेसे होता है;
सो जिस प्रकार कोई पुरुष किंचित्मात्र भी अपना धन देना नहीं चाहता; परन्तु जहाँ बहुत
धन जाता जाने वहाँ अपनी इच्छासे थोड़ा धन देनेका उपाय करता है; उसी प्रकार ज्ञानी
किंचित्मात्र भी कषायरूप कार्य नहीं करना चाहता, परन्तु जहाँ बहुत कषायरूप अशुभ- कार्य
होता जाने वहाँ इच्छा करके अल्प कषायरूप शुभकार्य करनेका उद्यम करता है।
इसप्रकार यह बात सिद्ध हुई कि जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने वहाँ तो शुभ कार्यका
निषेध ही है और जहाँ अशुभोपयोग होता जाने वहाँ शुभका उपाय करके अंगीकार करना
योग्य है।
इसप्रकार अनेक व्यवहारकार्योंका उत्थापन करके जो स्वच्छन्दपनेको स्थापित करता है,
उसका निषेध किया।
केवल निश्चयाभासके अवलम्बी जीवकी प्रवृत्ति
अब, उसी केवल निश्चयावलम्बी जीवकी प्रवृत्ति बतलाते हैंः —
एक शुद्धात्माको जाननेसे ज्ञानी हो जाते हैं — अन्य कुछ भी नहीं चाहिये; ऐसा जानकर
कभी एकान्तमें बैठकर ध्यानमुद्रा धारण करके ‘मैं सर्व कर्मोपाधिरहित सिद्धसमान आत्मा हूँ’ —
इत्यादि विचारसे संतुष्ट होता है; परन्तु यह विशेषण किस प्रकार सम्भव है — ऐसा विचार
नहीं है। अथवा अचल, अखण्ड, अनुपमादि विशेषण द्वारा आत्माको ध्याता है; सो यह
विशेषण अन्य द्रव्योंमें भी संभवित हैं। तथा यह विशेषण किस अपेक्षासे हैं सो विचार नहीं
है। तथा कदाचित् सोते-बैठते जिस-तिस अवस्थामें ऐसा विचार रखकर अपनेको ज्ञानी मानता
है।
तथा ज्ञानीके आस्रव-बन्ध नहीं हैं — ऐसा आगममें कहा है; इसलिये कदाचित् विषय-
कषायरूप होता है, वहाँ बन्ध होनेका भय नहीं है, स्वच्छन्द हुआ रागादिरूप प्रवर्तता है।
सो स्व-परको जाननेका तो चिह्न वैराग्यभाव है। सो समयसारमें कहा हैः —
‘‘सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः१।’’
अर्थः — सम्यग्दृष्टिके निश्चयसे ज्ञान-वैराग्यशक्ति होती है।
१. सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः, स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या।
यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च, स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।।
(समयसार कलश-१३६)