Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २०७
फि र कहा हैः
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्या-
दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु
आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वशून्याः
।।१३७।।
अर्थःस्वयमेव यह मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मेरे कदाचित् बन्ध नहीं हैइस प्रकार ऊँचा
फु लाया है मुँह जिन्होंनेऐसे रागी वैराग्यशक्ति रहित आचरण करते हैं तो करो, तथा पाँच
समितिकी सावधानीका अवलम्बन लेते हैं तो लो; परन्तु वे ज्ञानशक्ति बिना आज भी पापी
ही हैं। यह दोनों आत्मा-अनात्माके ज्ञानरहितपनेसे सम्यक्त्वरहित ही हैं।
फि र पूछते हैंपरको पर जाना तो परद्रव्योंमें रागादि करनेका क्या प्रयोजन रहा?
वहाँ वह कहता हैमोहके उदयसे रागादिक होते हैं। पूर्वकालमें भरतादिक ज्ञानी हुए, उनके
भी विषय-कषायरूप कार्य हुआ सुनते हैं।
उत्तरःज्ञानीके भी मोहके उदयसे रागादिक होते हैं यह सत्य है; परन्तु बुद्धिपूर्वक
रागादिक नहीं होते। उसका विशेष वर्णन आगे करेंगे।
तथा जिसके रागादिक होनेका कुछ विषाद नहीं है, उनके नाशका उपाय भी नहीं
है, उसको रागादिक बुरे हैंऐसा श्रद्धान भी नहीं सम्भवित होता। और ऐसे श्रद्धान बिना
सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है? जीवाजीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान करनेका प्रयोजन तो इतना ही
श्रद्धान है।
तथा भरतादिक सम्यग्दृष्टियोंके विषय-कषायोंकी प्रवृत्ति जैसे होती है वह भी विशेषरूपसे
आगे कहेंगे। तू उनके उदाहरणसे स्वच्छन्द होगा तो तुझे तीव्र आस्रव-बन्ध होगा।
वही कहा हैः
‘‘मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः’’
अर्थःज्ञाननयका अवलोकन करनेवाले भी जो स्वच्छन्द मन्दउद्यमी होते हैं, वे संसारमें
डूबते हैं।
१. मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन्, मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः।
विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च।।
(समयसार कलश१११)