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२०८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
और भी वहाँ ‘‘ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं’’१ इत्यादि क लशमें तथा ‘‘तथापि
न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनः’’२ इत्यादि क्लशमें स्वच्छन्दी होनेका निषेध किया है। बिना
इच्छाके जो कार्य हो वह कर्मबन्धका कारण नहीं है। अभिप्रायसे कर्ता होकर करे और
ज्ञाता रहे यह तो बनता नहीं है — इत्यादि निरूपण किया है।
इसलिये रागादिकको बुरे – अहितकारी जानकर उनके नाशके अर्थ उद्यम रखना।
वहाँ अनुक्रमसे पहले तीव्र रागादि छोड़नेके अर्थ अशुभ कार्य छोड़कर शुभमें लगना,
और पश्चात् मन्द रागादि भी छोड़नेके अर्थ शुभको छोड़कर शुद्धोपयोगरूप होना।
तथा कितने ही जीव अशुभमें क्लेश मानकर व्यापारादि कार्य व स्त्री-सेवनादि कार्योंको
भी घटाते हैं, तथा शुभको हेय जानकर शास्त्राभ्यासादि कार्योंमें नहीं प्रवर्तते हैं, वीतरागभावरूप
शुद्धोपयोगको प्राप्त हुए नहीं हैं; इसलिए वे जीव अर्थ, काम, धर्म, मोक्षरूप पुरुषार्थसे रहित
होते हुए आलसी – निरुद्यमी होते हैं।
उनकी निन्दा पंचास्तिकाय३की व्याख्यामें की है। उनके लिये दृष्टान्त दिया है कि जैसे
बहुत खीर-शक्कर खाकर पुरुष आलसी होता है व जैसे वृक्ष निरुद्यमी हैं; वैसे वे जीव आलसी –
निरुद्यमी हुए हैं।
अब इनसे पूछते हैं कि तुमने बाह्य तो शुभ-अशुभ कार्योंको घटाया, परन्तु उपयोग
तो बिना आलम्बनके रहता नहीं है; तो तुम्हारा उपयोग कहाँ रहता है? सो कहो।
यदि वह कहे कि आत्माका चिंतवन करता है, तो शास्त्रादि द्वारा अनेक प्रकारसे आत्माके
विचारको तो तुमने विकल्प ठहराया, और आत्माका कोई विशेषण जाननेमें बहुत काल लगता
नहीं है, बारम्बार एकरूप चिंतवनमें छद्मस्थका उपयोग लगता नहीं है, गणधरादिकका भी उपयोग
इसप्रकार नहीं रह सकता, इसलिये वे भी शास्त्रादि कार्योंमें प्रवर्तते हैं, तेरा उपयोग गणधरादिकसे
भी कैसे शुद्ध हुआ मानें? इसलिये तेरा कहना प्रमाण नहीं है।
जैसे कोई व्यापारादिमें निरुद्यमी होकर निठल्ला जैसे-तैसे काल गँवाता है; उसीप्रकार
१. ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते, भुंक्षे हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः।
बंधः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते, ज्ञानं सन्वस बंधमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्ध्रुवम्।।
(समयसार कलश-१५१)
२. तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः।
अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च।।
(समयसार कलश — १६६)
३. गाथा १७२ की टीकामें।