Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 199 of 350
PDF/HTML Page 227 of 378

 

background image
-
सातवाँ अधिकार ][ २०९
तू धर्ममें निरुद्यमी होकर प्रमाद सहित यों ही काल गंवाता है। कभी कुछ चिंतवन-सा करता
है, कभी बातें बनाता है, कभी भोजनादि करता है; परन्तु अपना उपयोग निर्मल करनेके
लिए शास्त्राभ्यास, तपश्चरण, भक्ति आदि कर्मोंमें नहीं प्रवर्तता। सूना-सा होकर प्रमादी होनेका
नाम शुद्धोपयोग ठहराता है। वहाँ क्लेश थोड़ा होनेसे जैसे कोई आलसी बनकर पड़े रहनेमें
सुख माने वैसे आनन्द मानता है।
अथवा जैसे कोई स्वप्नमें अपनेको राजा मानकर सुखी हो; उसी प्रकार अपनेको भ्रमसे
सिद्ध समान शुद्ध मानकर स्वयं ही आनन्दित होता है। अथवा जैसे कहीं रति मानकर सुखी
होता है; उसी प्रकार कुछ विचार करनेमें रति मानकर सुखी होता है; उसे अनुभवजनित
आनन्द कहता है। तथा जैसे कहीं अरति मानकर उदास होता है; उसी प्रकार व्यापारादिक,
पुत्रादिकको खेदका कारण जानकर उनसे उदास रहता और उसे वैराग्य मानता है
सो ऐसा
ज्ञान-वैराग्य तो कषायगर्भित है। वीतरागरूप उदासीनदशा में जो निराकुलता होती है वह
सच्चा आनन्द, ज्ञान, वैराग्य ज्ञानी जीवोंके चारित्रमोहकी हीनता होने पर प्रगट होता है।
तथा वह व्यापारादिक क्लेश छोड़कर यथेष्ट भोजनादि द्वारा सुखी हुआ प्रवर्तता है
और वहाँ अपनेको कषायरहित मानता है; परन्तु इस प्रकार आनन्दरूप होनेसे तो रौद्रध्यान
होता है। जहाँ सुखसामग्रीको छोड़कर दुःखसामग्रीका संयोग होने पर संक्लेश न हो, राग-
द्वेष उत्पन्न न हों; तब निःकषायभाव होता है।
ऐसी भ्रमरूप उनकी प्रवृत्ति पायी जाती है।
इस प्रकार जो जीव केवल निश्चयाभासके अवलम्बी हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना।
जैसेवेदान्ती व सांख्यमती जीव केवल शुद्धात्माके श्रद्धानी हैं; उसी प्रकार इन्हें भी जानना।
क्योंकि श्रद्धानकी समानताके कारण उनका उपदेश इन्हें इष्ट लगता है, इनका उपदेश उन्हें
इष्ट लगता है।
तथा उन जीवोंको ऐसा श्रद्धान है कि केवल शुद्धात्माके चिंतवनसे तो संवर-निर्जरा
होते हैं व मुक्तात्माके सुखका अंश वहाँ प्रगट होता है; तथा जीवके गुणस्थानादि अशुद्ध
भावोंका और अपने अतिरिक्त अन्य जीव-पुद्गलादिका चिंतवन करनेसे आस्रव-बन्ध होता है;
इसलिये अन्य विचारसे पराङ्मुख रहते हैं।
सो यह भी सत्यश्रद्धान नहीं है, क्योंकि शुद्ध स्वद्रव्यका चिंतवन करो या अन्य चिंतवन
करो; यदि वीतरागतासहित भाव हों तो वहाँ संवर-निर्जरा ही है, और जहाँ रागादिरूप भाव
हों वहाँ आस्रव-बन्ध ही है। यदि परद्रव्यको जाननेसे ही आस्रव-बन्ध होते हों, तो केवली
तो समस्त परद्रव्योंको जानते हैं, इसलिये उनके भी आस्रव-बन्ध होंगे।