है, कभी बातें बनाता है, कभी भोजनादि करता है; परन्तु अपना उपयोग निर्मल करनेके
लिए शास्त्राभ्यास, तपश्चरण, भक्ति आदि कर्मोंमें नहीं प्रवर्तता। सूना-सा होकर प्रमादी होनेका
नाम शुद्धोपयोग ठहराता है। वहाँ क्लेश थोड़ा होनेसे जैसे कोई आलसी बनकर पड़े रहनेमें
सुख माने वैसे आनन्द मानता है।
होता है; उसी प्रकार कुछ विचार करनेमें रति मानकर सुखी होता है; उसे अनुभवजनित
आनन्द कहता है। तथा जैसे कहीं अरति मानकर उदास होता है; उसी प्रकार व्यापारादिक,
पुत्रादिकको खेदका कारण जानकर उनसे उदास रहता और उसे वैराग्य मानता है
सच्चा आनन्द, ज्ञान, वैराग्य ज्ञानी जीवोंके चारित्रमोहकी हीनता होने पर प्रगट होता है।
होता है। जहाँ सुखसामग्रीको छोड़कर दुःखसामग्रीका संयोग होने पर संक्लेश न हो, राग-
द्वेष उत्पन्न न हों; तब निःकषायभाव होता है।
इस प्रकार जो जीव केवल निश्चयाभासके अवलम्बी हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना।
इष्ट लगता है।
भावोंका और अपने अतिरिक्त अन्य जीव-पुद्गलादिका चिंतवन करनेसे आस्रव-बन्ध होता है;
इसलिये अन्य विचारसे पराङ्मुख रहते हैं।
हों वहाँ आस्रव-बन्ध ही है। यदि परद्रव्यको जाननेसे ही आस्रव-बन्ध होते हों, तो केवली
तो समस्त परद्रव्योंको जानते हैं, इसलिये उनके भी आस्रव-बन्ध होंगे।