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२१० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र वह कहता है कि छद्मस्थके तो परद्रव्य चिंतवनसे आस्रव-बन्ध होता है? सो
भी नहीं है; क्योंकि शुक्लध्यानमें भी मुनियोंको छहों द्रव्योंके द्रव्य-गुण-पर्यायोंका चिंतवन होनेका
निरूपण किया है, और अवधि-मनःपर्यय आदिमें परद्रव्यको जाननेकी ही विशेषता होती है;
तथा चौथे गुणस्थानमें कोई अपने स्वरूपका चिंतवन करता है उसके भी आस्रव-बन्ध अधिक
हैं तथा गुणश्रेणी निर्जरा नहीं है; पाँचवे-छट्ठे गुणस्थानमें आहार-विहारादि क्रिया होने पर परद्रव्य
चिंतवनसे भी आस्रव-बन्ध थोड़ा है और गुणश्रेणी निर्जरा होती रहती है। इसलिये स्वद्रव्य-
परद्रव्यके चिंतवनसे निर्जरा-बन्ध नहीं होते, रागादि घटने से निर्जरा है और रागादि होने से
बन्ध है। उसे रागादिके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं है, इसलिये अन्यथा मानता है।
अब वह पूछता कि ऐसा है तो निर्विकल्प अनुभवदशामें नय-प्रमाण-निक्षेपादिकके तथा
दर्शन-ज्ञानादिकके भी विकल्पोंका निषेध किया है — सो किस प्रकार है?
उत्तरः — जो जीव इन्हीं विकल्पोंमें लगे रहते हैं और अभेदरूप एक आत्माका अनुभव
नहीं करते उन्हें ऐसा उपदेश दिया है कि यह सर्व विकल्प वस्तुका निश्चय करनेमें कारण
हैं, वस्तुका निश्चय होने पर उनका प्रयोजन कुछ नहीं रहता; इसलिये इन विकल्पोंको भी
छोड़कर अभेदरूप एक आत्माका अनुभव करना, इनके विचाररूप विकल्पोंमें ही फँसा रहना
योग्य नहीं है।
तथा वस्तुका निश्चय होनेके पश्चात् ऐसा नहीं है कि सामान्यरूप स्वद्रव्यका ही चिंतवन
रहा करे। स्वद्रव्यका तथा परद्रव्यका सामान्यरूप और विशेषरूप जानना होता है, परन्तु
वीतरागतासहित होता है; उसीका नाम निर्विकल्पदशा है।
वहाँ वह पूछता है — यहाँ तो बहुत विकल्प हुए, निर्विकल्प संज्ञा कैसे सम्भव है?
उत्तरः — निर्विचार होनेका नाम निर्विकल्प नहीं है; क्योंकि छद्मस्थके जानना
विचारसहित है, उसका अभाव माननेसे ज्ञानका अभाव होगा और तब जड़पना हुआ; सो
आत्माके होता नहीं है। इसलिये विचार तो रहता है।
तथा यह कहे कि एक सामान्यका ही विचार रहता है, विशेषका नहीं। तो सामान्यका
विचार तो बहुत काल रहता नहीं है व विशेषकी अपेक्षा बिना सामान्यका स्वरूप भासित
नहीं होता।
तथा यह कहे कि अपना ही विचार रहता है, परका नहीं; तो परमें परबुद्धि हुए
बिना अपनेमें निजबुद्धि कैसे आये?
वहाँ वह कहता है — समयसारमें ऐसा कहा हैः —