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२१४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
[ कुलअपेक्षा धर्मधारक व्यवहाराभासी ]
वहाँ कोई जीव तो कुलक्रमसे ही जैनी हैं, जैनधर्मका स्वरूप जानते नहीं, परन्तु कुलमें
जैसी प्रवृत्ति चली आयी है वैसे प्रवर्तते हैं। वहाँ जिस प्रकार अन्यमती अपने कुलधर्ममें
प्रवर्तते हैं उसी प्रकार यह प्रवर्तते हैं। यदि कुलक्रमसे ही धर्म हो तो मुसलमान आदि सभी
धर्मात्मा हो जायें। जैनधर्मकी विशेषता क्या रही?
वही कहा हैः —
लोयम्मि रायणीई णायं ण कुलकम्मि कइयावि।
किं पुण तिलोय पहुणो जिणंदधम्माहिगारम्मि।।७।। (उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला)
अर्थः — लोकमें यह राजनीति है कि कदाचित् कुलक्रमसे न्याय नहीं होता है। जिसका
कुल चोर हो, उसे चोरी करते पकड़ लें तो उसका कुलक्रम जानकर छोड़ते नहीं हैं, दण्ड ही
देते हैं। तो त्रिलोकप्रभु जिनेन्द्रदेवके धर्मके अधिकारमें क्या कुलक्रमानुसार न्याय संभव है?
तथा यदि पिता दरिद्री हो और आप धनवान हो, तब वहाँ तो कुलक्रमका विचार
करके आप दरिद्री रहता ही नहीं, तो धर्ममें कुलका क्या प्रयोजन है? तथा पिता नरकमें
जाये और पुत्र मोक्ष जाता है, वहाँ कुलक्रम कैसे रहा? यदि कुल पर दृष्टि हो तो पुत्र
भी नरकगामी होना चाहिये। इसलिये धर्ममें कुलक्रमका कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
शास्त्रोंका अर्थ विचारकर यदि कालदोषसे जिनधर्ममें भी पापी पुरुषों द्वारा कुदेव-कुगुरु-
कुधर्म सेवनादिरूप तथा विषय-कषाय पोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलाई गई हो, तो उसका
त्याग करके जिन-आज्ञानुसार प्रवर्तन करना योग्य है।
यहाँ कोई कहे कि परम्परा छोड़कर नवीन मार्गमें प्रवर्तन करना योग्य नहीं है?
उससे कहते हैं — यदि अपनी बुद्धिसे नवीन मार्ग पकड़े तो योग्य नहीं है। जो
परम्परा – अनादिनिधन जैनधर्मका स्वरूप शास्त्रोंमें लिखा है, उसकी प्रवृत्ति मिटाकर पापी पुरुषोंने
बीचमें अन्यथा प्रवृत्ति चलाई हो, उसे परम्परा-मार्ग कैसे कहा जा सकता है? तथा उसे छोड़कर
पुरातन जैनशास्त्रोंमें जैसा धर्म लिखा था, वैसे प्रवर्तन करे तो उसे नवीन मार्ग कैसे कहा
जा सकता है?
तथा यदि कुलमें जैसी जिनदेवकी आज्ञा है, उसी प्रकार धर्मकी प्रवृत्ति है तो अपनेको
भी वैसे ही प्रवर्तन करना योग्य है; परन्तु उसे कुलाचार न जान धर्म जानकर, उसके स्वरूप,
फलादिकका निश्चय करके अंगीकार करना। जो सच्चे भी धर्मको कुलाचार जानकर प्रवर्तता