-
सातवाँ अधिकार ][ २१७
सम्यक्त्व व धर्मध्यान होता है। लोकमें भी किसी प्रकार परीक्षा होने पर ही पुरुषकी प्रतीति
करते हैं।
तथा तूने कहा कि जिनवचनमें संशय करनेसे सम्यक्त्वके शंका नामक दोष होता है;
सो ‘न जाने यह किस प्रकार है’ — ऐसा मानकर निर्णय न करे वहाँ शंका नामक दोष होता
है। तथा यदि निर्णय करनेका विचार करते ही सम्यक्त्वमें दोष लगता हो तो अष्टसहस्रीमें
आज्ञाप्रधानसे परीक्षाप्रधानको उत्तम किसलिये कहा? पृच्छना आदि स्वाध्यायके अंग कैसे कहे?
प्रमाण-नयसे पदार्थोंका निर्णय करनेका उपदेश किसलिये दिया? इसलिये परीक्षा करके आज्ञा
मानना योग्य है।
तथा कितने ही पापी पुरुषोंने अपने कल्पित कथन किये हैं और उन्हें जिनवचन
ठहराया है, उन्हें जैनमतके शास्त्र जानकर प्रमाण नहीं करना। वहाँ भी प्रमाणादिकसे परीक्षा
करके, व परस्पर शास्त्रोंसे विधि मिलाकर, व इस प्रकार सम्भव है या नहीं — ऐसा विचार
करके विरुद्ध अर्थको मिथ्या ही जानना।
जैसे — किसी ठगने स्वयं पत्र लिखकर उसमें लिखनेवालेका नाम किसी साहूकारका
रखा; उस नामके भ्रमसे धनको ठगाये तो दरिद्री होगा। उसी प्रकार पापी लोगोंने स्वयं
ग्रन्थादि बनाकर वहाँ कर्ताका नाम जिन, गणधर, आचार्योंका रखा; उस नामके भ्रमसे झूठ
श्रद्धान करे तो मिथ्यादृष्टि ही होगा।
तथा वह कहता है — गोम्मटसार१में ऐसा कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव अज्ञानी गुरुके
निमित्तसे झूठ भी श्रद्धान करे तो आज्ञा माननेसे सम्यग्दृष्टि ही है। सो यह कथन कैसे किया?
उत्तरः — जो प्रत्यक्ष-अनुमानादिगोचर नहीं हैं, और सूक्ष्मपनेसे जिनका निर्णय नहीं हो
सकता उनकी अपेक्षा यह कथन है; परन्तु मूलभूत देव-गुरु-धर्मादि तथा तत्त्वादिकका अन्यथा
श्रद्धान होने पर तो सर्वथा सम्यक्त्व रहता नहीं है — यह निश्चय करना। इसलिये बिना परीक्षा
किये केवल आज्ञा ही द्वारा जो जैनी हैं उन्हें भी मिथ्यादृष्टि जानना।
तथा कितने ही परीक्षा करके भी जैनी होते हैं; परन्तु मूल परीक्षा नहीं करते।
दया, शील, तप, संयमादि क्रियाओं द्वारा; व पूजा, प्रभावनादि कार्योंसे; अतिशय, चमत्कारादिसे
व जिनधर्मसे इष्ट प्राप्ति होनेके कारण जिनमतको उत्तम जानकर, प्रीतिवंत होकर जैनी होते
हैं। सो अन्यमतोंमें भी ये कार्य तो पाये जाते हैं; इसलिये इन लक्षणोंमें तो अतिव्याप्ति
पाया जाता है।
१. सम्माइठ्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमासौ गुरुणियोगा।।२७।। (जीवकाण्ड)