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२१८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कोई कहे — जैसे जिनधर्ममें ये कार्य हैं, वैसे अन्यमतोंमें नहीं पाये जाते; इसलिये
अतिव्याप्ति नहीं है?
समाधानः — यह तो सत्य है, ऐसा ही है। परन्तु जैसे तू दयादिक मानता है उसी
प्रकार तो वे भी निरूपण करते हैं। परजीवोंकी रक्षाको दया तू कहता है, वही वे कहते
हैं। इसी प्रकार अन्य जानना।
फि र वह कहता है — उनके ठीक नहीं है; क्योंकि कभी दया प्ररूपित करते हैं, कभी
हिंसा प्ररूपित करते हैं?
उत्तरः — वहाँ दयादिकका अंशमात्र तो आया; इसलिये अतिव्याप्तिपना इन लक्षणोंके
पाया जाता है। इनके द्वारा सच्ची परीक्षा होती नहीं।
तो कैसे होती है? जिनधर्ममें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको मोक्षमार्ग कहा है। वहाँ सच्चे
देवादिक व जीवादिकका श्रद्धान करनेसे सम्यक्त्व होता है, व उनको जाननेसे सम्यग्ज्ञान होता
है, व वास्तवमें रागादिक मिटने पर सम्यक्चारित्र होता है। सो इनके स्वरूपका जैसा जिनमतमें
निरूपण किया है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं किया, तथा जैनीके सिवाय अन्यमती ऐसा कार्य
कर नहीं सकते। इसलिये यह जिनमतका सच्चा लक्षण है। इस लक्षणको पहिचानकर जो
परीक्षा करते हैं वे ही श्रद्धानी हैं। इसके सिवाय जो अन्य प्रकारसे परीक्षा करते हैं वे
मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं।
तथा कितने ही संगतिसे जैनधर्म धारण करते हैं, कितने ही महान् पुरुषको जिनधर्ममें
प्रवर्तता देख आप भी प्रवर्तते हैं, कितने ही देखादेखी जिनधर्मकी शुद्ध या अशुद्ध क्रियाओंमें
प्रवर्तते हैं। — इत्यादि अनेक प्रकारके जीव आप विचारकर जिनधर्मका रहस्य नहीं पहिचानते
और जैनी नाम धारण करते हैं। वे सब मिथ्यादृष्टि ही जानना।
इतना तो है कि जिनमतमें पापकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती और पुण्यके निमित्त बहुत
हैं, तथा सच्चे मोक्षमार्गके कारण वहाँ बने रहते हैं; इसलिये जो कुलादिसे भी जैनी हैं, वे
भी औरोंसे तो भले ही हैं।
[ सांसारिक प्रयोजनार्थ धर्मधारक व्यवहारभासी ]
तथा जो जीव कपटसे आजीविकाके अर्थ, व बड़ाईके अर्थ, व कुछ विषय-कषाय-
समबन्धी प्रयोजन विचारकर जैनी होते हैं; वे तो पापी ही हैं। अति तीव्र कषाय होने पर
ऐसी बुद्धि आती है। उनका सुलझना भी कठिन है। जैनधर्मका सेवन तो संसार नाशके