Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२२० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
[ उक्त व्यवहारभासी धर्मधारकोंकी सामान्य प्रवृत्ति ]
अब, इनके धर्मका साधन कैसे पाया जाता है सो विशेष बतलाते हैंः
वहाँ कितने ही जीव कुलप्रवृत्तिसे अथवा देखा-देखी लोभादिके अभिप्रायसे धर्म साधते
हैं, उनके तो धर्मदृष्टि नहीं है।
यदि भक्ति करते हैं तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि घूमती रहती है और मुखसे पाठादि
करते हैं व नमस्कारादि करते हैं; परन्तु यह ठीक नहीं है। मैं कौन हूँ, किसकी स्तुति करता
हूँ, किस प्रयोजनके अर्थ स्तुति करता हूँ, पाठमें क्या अर्थ है, सो कुछ पता नहीं है।
तथा कदाचित् कुदेवादिककी भी सेवा करने लग जाता है; वहाँ सुदेव-गुरु-शास्त्रादि
व कुदेव-गुरु-शास्त्रादिकी विशेष पहिचान नहीं है।
तथा यदि दान देता है तो पात्र-अपात्रके विचार रहित जैसे अपनी प्रशंसा हो वैसे
दान देता है।
तथा तप करता है तो भूखा रहकर महंतपना हो वह कार्य करता है; परिणामोंकी
पहिचान नहीं है।
तथा व्रतादिक धारण करता है तो वहाँ बाह्यक्रिया पर दृष्टि है; सो भी कोई सच्ची
क्रिया करता है, कोई झूठी करता है; और जो अन्तरंग रागादिभाव पाये जाते हैं उनका
विचार ही नहीं है, तथा बाह्यमें भी रागादिके पोषणके साधन करता है।
तथा पूजा-प्रभावनादि कार्य करता है तो वहाँ जिस प्रकार लोकमें बड़ाई हो, व विषय-
कषायका पोषण हो उस प्रकार कार्य करता है। तथा बहुत हिंसादिक उत्पन्न करता है।
सो यह कार्य तो अपने तथा अन्य जीवोंके परिणाम सुधारनेके अर्थ कहे हैं। तथा वहाँ
किंचित् हिंसादिक भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु जिसमें थोड़ा अपराध हो और गुण अधिक हो वह
कार्य करना कहा है। सो परिणामोंकी तो पहिचान नहीं है और यहाँ अपराध कितना लगता
है, गुण कितना होता है
ऐसे नफा-टोटेका ज्ञान नहीं है व विधि-अविधिका ज्ञान नहीं है।
तथा शास्त्राभ्यास करता है तो वहाँ पद्धतिरूप प्रवर्तता है। यदि बाँचता है तो औरोंको
सुना देता है, यदि पढ़ता है तो आप पढ़ जाता है, सुनता है तो जो कहते हैं वह सुन
लेता है; परन्तु शास्त्राभ्यासका प्रयोजन है उसे आप अन्तरंगमें नहीं अवधारण करता।
इत्यादि धर्मकार्योंके मर्मको नहीं पहिचानता।
कितने तो जिस प्रकार कुलमें बड़े प्रवर्तते हैं उसी प्रकार हमें भी करना, अथवा