Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २२१
दूसरे करते हैं वैसा हमें भी करना, व ऐसा करनेसे हमारे लोभादिककी सिद्धि होगी इत्यादि
विचारसहित अभूतार्थधर्मको साधते हैं।
तथा कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके कुछ तो कुलादिरूप बुद्धि है, कुछ धर्मबुद्धि
भी है; इसलिये पूर्वोक्त प्रकार भी धर्मका साधन करते हैं और कुछ आगे कहते हैं उस
प्रकारसे अपने परिणामोंको भी सुधारते हैं
मिश्रपना पाया जाता है।
[ धर्मबुद्धिसे धर्मधारक व्यवहाराभासी ]
तथा कितने ही धर्मबुद्धिसे धर्म साधते हैं, परन्तु निश्चयधर्मको नहीं जानते, इसलिये
अभूतार्थरूप धर्मको साधते हैं। वहाँ व्यवहारसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको मोक्षमार्ग जानकर उनका
साधन करते हैं।
सम्यग्दर्शनका अन्यथारूप
वहाँ शास्त्रमें देव-गुरु-धर्मकी प्रतीति करनेसे सम्यक्त्व होना कहा है। ऐसी आज्ञा
मानकर अरहन्तदेव, निर्ग्रन्थगुरु, जैनशास्त्रके अतिरिक्त औरोंको नमस्कारादि करनेका त्याग किया
है; परन्तु उनके गुण-अवगुणकी परीक्षा नहीं करते, अथवा परीक्षा भी करते हैं तो
तत्त्वज्ञानपूर्वक सच्ची परीक्षा नहीं करते, बाह्यलक्षणों द्वारा परीक्षा करते हैं। ऐसी प्रतीतिसे
सुदेव-गुरु-शास्त्रोंकी भक्तिमें प्रवर्तते हैं।
देवभक्तिका अन्यथारूप
वहाँ अरहन्तदेव हैं, इन्द्रादि द्वारा पूज्य हैं, अनेक अतिशयसहित हैं, क्षुधादि दोषरहित
हैं, शरीरकी सुन्दरताको धारण करते हैं, स्त्री-संगमादिरहित हैं, दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश देते
हैं, केवलज्ञान द्वारा लोकालोकको जानते हैं, काम-क्रोधादिक नष्ट किये हैं
इत्यादि विशेषण
कहे हैं। वहाँ इनमेंसे कितने ही विशेषण पुद्गलाश्रित हैं और कितने ही जीवाश्रित हैं, उनको
भिन्न-भिन्न नहीं पहिचानते। जिस प्रकार कोई असमानजातीय मनुष्यादि पर्यायोंमें जीव-पुद्गलके
विशेषणोंको भिन्न न जानकर मिथ्यादृष्टि धारण करता है, उसी प्रकार यह भी असमानजातीय
अरहन्तपर्यायमें जीव-पुद्गलके विशेषणोंको भिन्न न जानकर मिथ्यादृष्टि धारण करता है।
तथा जो बाह्य विशेषण हैं उन्हें तो जानकर उनके द्वारा अरहन्तदेवको महंतपना विशेष
मानता है, और जो जीवके विशेषण हैं उन्हें यथावत् न जानकर उनके द्वारा अरहन्तदेवको
महन्तपना आज्ञानुसार मानता है अथवा अन्यथा मानता है। क्योंकि यथावत् जीवके विशेषण
जाने तो मिथ्यादृष्टि न रहे।
तथा उन अरहन्तोंको स्वर्ग-मोक्षदाता, दीनदयाल, अधमउधारक, पतितपावन मानता है;