Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२२२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सो जैसे अन्यमती कर्तृत्वबुद्धिसे ईश्वरको मानता है; उसी प्रकार यह अरहन्तको मानता है।
ऐसा नहीं जानता कि फल तो अपने परिणामोंका लगता है, अरहन्त उनको निमित्तमात्र हैं,
इसलिये उपचार द्वारा वे विशेषण सम्भव होते हैं।
अपने परिणाम शुद्ध हुए बिना अरहन्तही स्वर्ग-मोक्षादिके दाता नहीं हैं। तथा
अरहन्तादिकके नामादिकसे श्वानादिकने स्वर्ग प्राप्त किया, वहाँ नामादिकका ही अतिशय मानते
हैं; परन्तु बिना परिणामके नाम लेनेवालेको भी स्वर्गकी प्राप्ति नहीं होती, तब सुननेवालेको
कैसे होगी? श्वानादिकको नाम सुननेके निमित्तसे कोई मन्दकषायरूप भाव हुए हैं उनका फल
स्वर्ग हुआ है; उपचारसे नामकी ही मुख्यता की है।
तथा अरहन्तादिकके नामपूजनादिकसे अनिष्ट सामग्रीका नाश तथा इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति
मानकर रोगादि मिटानेके अर्थ व धनादिककी प्राप्तिके अर्थ नाम लेता है व पूजनादि करता
है। सो इष्ट-अनिष्टका कारण तो पूर्वकर्मका उदय है, अरहन्त तो कर्ता हैं नहीं।
अरहन्तादिककी भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामोंसे पूर्वपापके संक्रमणादि हो जाते हैं, इसलिये
उपचारसे अनिष्टके नाशका व इष्टकी प्राप्तिका कारण अरहन्तादिककी भक्ति कही जाती है।
परन्तु जो जीव प्रथमसे ही सांसारिक प्रयोजनसहित भक्ति करता है उसके तो पापका ही
अभिप्राय हुआ। कांक्षा, विचिकित्सारूप भाव हुए
उनसे पूर्वपापके संक्रमणादि कैसे होंगे?
इसलिये उसका कार्य सिद्ध नहीं हुआ।
तथा कितने ही जीव भक्तिको मुक्तिका कारण जानकर वहाँ अति अनुरागी होकर
प्रवर्तते हैं। वह तो अन्यमती जैसे भक्तिसे मुक्ति मानते हैं वैसा ही इनके भी श्रद्धान हुआ,
परन्तु भक्ति तो रागरूप है और रागसे बन्ध है, इसलिये मोक्षका कारण नहीं है। जब रागका
उदय आता है तब भक्ति न करे तो पापानुराग हो, इसलिये अशुभराग छोड़नेके लिये ज्ञानी
भक्तिमें प्रवर्तते हैं और मोक्षमार्गको बाह्य निमित्तमात्र भी जानते हैं; परन्तु यहाँ ही उपादेयपना
मानकर सन्तुष्ट नहीं होते, शुद्धोपयोगके उद्यमी रहते हैं।
वही पंचास्तिकाय व्याख्यामें कहा हैःइयं भक्तिः केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति।
तीव्ररागज्वरविनोदार्थमस्थानरागनिषेधार्थं क्वचित् ज्ञानिनोपि भवति।।
अर्थःयह भक्ति केवल भक्ति ही है प्रधान जिसके ऐसे अज्ञानी जीवके होती है।
तथा तीव्ररागज्वर मिटानेके अर्थ या कुस्थानके रागका निषेध करनेके अर्थ कदाचित् ज्ञानीके
भी होती है।
१. अयं हि स्थूललक्षतया केवलभक्तिप्रधान्यस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानराग
निषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति।(गाथा १३६ की टीका)