Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२२६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मिलापसे उत्पन्न हुई जानता है; यह जीवकी क्रिया है उसका पुद्गल निमित्त है, यह पुद्गलकी
क्रिया है उसका जीव निमित्त है
ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासित नहीं होता। इत्यादि भाव
भासित हुए बिना उसे जीव-अजीवका सच्चा श्रद्धानी नहीं कहते; क्योंकि जीव-अजीवको
जाननेका तो यह ही प्रयोजन था, वह हुआ नहीं।
आस्रवतत्त्वका अन्यथारूप
तथा आस्रवतत्त्वमें जो हिंसादिरूप पापास्रव हैं उन्हें हेय जानता है; अहिंसादिरूप
पुण्यास्रव हैं उन्हें उपादेय मानता है। परन्तु यह तो दोनों ही कर्मबन्धके कारण हैं इनमें
उपादेयपना मानना वही मिथ्यादृष्टि है। वही समयसारके बन्धाधिकारमें कहा है
:
सर्व जीवोंके जीवन-मरण, सुख-दुःख अपने कर्मके निमित्तसे होते हैं। जहाँ अन्य जीव
अन्य जीवके इन कार्योंका कर्ता हो, वही मिथ्याध्यवसाय बन्धका कारण है। वहाँ अन्य
जीवोंको जिलानेका अथवा सुखी करनेका अध्यवसाय हो वह तो पुण्यबन्धका कारण है और
मारनेका अथवा दुःखी करनेका अध्यवसाय हो वह पापबन्धका कारण है।
इस प्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्यबन्धके कारण हैं और हिंसावत् असत्यादिक
पापबन्धके कारण हैं। ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे त्याज्य हैं। इसलिये हिंसादिवत्
अहिंसादिकको भी बन्धका कारण जानकर हेय ही मानना।
हिंसामें मारनेकी बुद्धि हो, परन्तु उसकी आयु पूर्ण हुए बिना मरता नहीं है, यह
अपनी द्वेषपरिणतिसे आप ही पाप बाँधता है। अहिंसामें रक्षा करनेकी बुद्धि हो, परन्तु उसकी
आयु अवशेष हुए बिना वह जीता नहीं है, यह अपनी प्रशस्त रागपरिणतिसे आप ही पुण्य
बाँधता है। इस प्रकार यह दोनों हेय हैं; जहाँ वीतराग होकर दृष्टाज्ञातारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बन्ध
है सो उपादेय हैं।
सो ऐसी दशा न हो तब तक प्रशस्तरागरूप प्रवर्तन करो; परन्तु श्रद्धान तो ऐसा
रखो कि यह भी बन्धका कारण है, हेय है; श्रद्धानमें इसे मोक्षमार्ग जाने तो मिथ्यादृष्टि ही
होता है।
तथा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योगये आस्रवके भेद हैं; उन्हें बाह्यरूप तो मानता
१. समयसार गाथा २५४ से २५६ तथा समयसारके निम्नलिखित कलश
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात्पुमानमरणजीवितदुःखसौख्यम्।।१६८।।
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्।
कर्म्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति।।१६९।।