Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 215 of 350
PDF/HTML Page 243 of 378

 

background image
-
सातवाँ अधिकार ][ २२५
नाम नहीं जानता, परन्तु उनके स्वरूपको पहिचानता है; उसी प्रकार तुच्छबुद्धि जीवादिकका
नाम नहीं जानते, परन्तु उनके स्वरूपको पहिचानते हैं कि ‘यह मैं हूँ; ये पर है, ये भाव
बुरे हैं, ये भले हैं’;
इस प्रकार स्वरूपको पहिचाने उसका नाम भाव भासना है। शिवभूति
मुनि जीवादिकका नाम नहीं जानते थे, और ‘तुषमाषभिन्न’ ऐसा रटने लगे। सो यह
सिद्धान्तका शब्द था नहीं; परन्तु स्व-परके भावरूप ध्यान किया, इसलिये केवली हुए। और
ग्यारह अंगके पाठी जीवादितत्त्वोंके विशेष भेद जानते हैं; परन्तु भाव भासित नहीं होता,
इसलिये मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं।
अब, इसके तत्त्वश्रद्धान किस प्रकार होता है सो कहते हैंः
जीव-अजीवतत्त्वका अन्यथारूप
जिनशास्त्रोंसे जीवके त्रस-स्थावरादिरूप तथा गुणस्थान-मार्गणादिरूप भेदको जानता है,
अजीवके पुद्गलादि भेदोंको तथा उनके वर्णादि विशेषोंको जानता है, परन्तु अध्यात्मशास्त्रोंमें
भेदविज्ञानको कारणभूत व वीतरागदशा होनेको कारणभूत जैसा निरूपण किया है वैसा नहीं
जानता।
तथा किसी प्रसंगवश उसी प्रकार जानना हो जाये तब शास्त्रानुसार जान तो लेता
है; परन्तु अपनेको आपरूप जानकर परका अंश भी अपनेमें न मिलाना और अपना अंश
भी परमें न मिलाना ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टि निर्धार बिना
पर्यायबुद्धिसे जानपनेमें व वर्णादिमें अहंबुद्धि धारण करते हैं; उसी प्रकार यह भी आत्माश्रित
ज्ञानादिमें तथा शरीराश्रित उपदेश
उपवासादि क्रियाओंमें अपनत्व मानता है।
तथा कभी शास्त्रानुसार सच्ची बात बनाता है; परन्तु अंतरंग निर्धाररूप श्रद्धान नहीं
है। इसलिये जिस प्रकार मतवाला माताको माता भी कहे तो वह सयाना नहीं है; उसी
प्रकार इसे सम्यक्त्वी नहीं कहते।
तथा जैसे किसी औरकी ही बातें कर रहा हो, उस प्रकारसे आत्माका कथन करता
है; परन्तु यह आत्मा ‘मैं हूँ’ऐसा भाव भासित नहीं होता।
तथा जैसे किसी औरको औरसे भिन्न बतलाता हो, उस प्रकार आत्मा और शरीरकी
भिन्नता प्ररूपित करता है; परन्तु मैं इन शरीरादिकसे भिन्न हूँऐसा भाव भासित नहीं होता।
तथा पर्यायमें जीव-पुद्गलके परस्पर निमित्तसे अनेक क्रियाएँ होती हैं, उन्हें दोनों द्रव्योंके
१. तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फु डं जाओ।। (भावपाहुड़५३)