Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२२८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
संवरतत्त्वका अन्यथास्वरूप
तथा संवरतत्त्वमें अहिंसादिरूप शुभास्रवभावोंको जानता है। परन्तु एक ही कारणसे
पुण्यबन्ध भी माने और संवर भी माने वह नहीं हो सकता।
प्रश्नः मुनियोंके एक कालमें एक भाव होता है, वहाँ उनके बन्ध भी होता है
और संवर-निर्जरा भी होते हैं, सो किस प्रकार है?
समाधानःवह मिश्ररूप है। कुछ वीतराग हुआ है, कुछ सराग रहा है। जो अंश
वीतराग हुए उनसे संवर है और जो अंश सराग रहे उनसे बन्ध है। सो एक भावसे तो
दो कार्य बनते हैं, परन्तु एक प्रशस्त रागसे ही पुण्यास्रव भी मानना और संवर-निर्जरा भी
मानना सो भ्रम है। मिश्रभावमें भी यह सरागता है, यह वीतरागता है
ऐसी पहिचान
सम्यग्दृष्टिके होती है, इसलिये अवशेष सरागताको हेयरूप श्रद्धा करता है। मिथ्यादृष्टिके ऐसी
पहिचान नहीं है, इसलिये सरागभावमें संवरके भ्रमसे प्रशस्तरागरूप कार्योंको उपादेयरूप श्रद्धा
करता है।
तथा सिद्धान्तमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्रइनके द्वारा संवर
होता है ऐसा कहा है, सो इनकी भी यथार्थ श्रद्धा नहीं करता।
किस प्रकार? सो कहते हैं :
गुप्तिःबाह्य मन-वचन-कायकी चेष्टा मिटाये, पाप-चिंतवन न करे, मौन धारण करे,
गमनादि न करे; उसे वह गुप्ति मानता है। सो यहाँ तो मनमें भक्ति आदिरूप प्रशस्त रागसे
नाना विकल्प होते हैं, वचन-कायकी चेष्टा स्वयंने रोक रखी है; वहाँ शुभप्रवृत्ति है और प्रवृत्तिमें
गुप्तिपना बनता नहीं है; इसलिये वीतरागभाव होने पर जहाँ मन-वचन-कायकी चेष्टा न हो
वही सच्ची गुप्ति है।
समितिःतथा परजीवोंकी रक्षाके अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति उसको समिति मानता है।
सो हिंसाके परिणामोंसे तो पाप होता है और रक्षाके परिणामोंसे संवर कहोगे तो पुण्यबन्धका
कारण कौन ठहरेगा? तथा एषणा समितिमें दोष टालता है वहाँ रक्षाका प्रयोजन है नहीं;
इसलिये रक्षाके ही अर्थ समिति नहीं है।
तो समिति कैसी होती है? मुनियोंके किंचित् राग होने पर गमनादि क्रिया होती है,
वहाँ उन क्रियाओंमें अति आसक्तताके अभावसे प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती। तथा अन्य
जीवोंको दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन नहीं साधते, इसलिये स्वयमेव ही दया पलती
है। इसप्रकार सच्ची समिति है।
१. स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः। (तत्त्वार्थसूत्र ९-२)