Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २२९
धर्मःतथा बन्धादिकके भयसे अथवा स्वर्ग-मोक्षकी इच्छासे क्रोधादि नहीं करते, परन्तु
वहाँ क्रोधादि करनेका अभिप्राय तो मिटा नहीं है। जैसेकोई राजादिकके भयसे अथवा
महन्तपनेके लोभसे परस्त्रीका सेवन नहीं करता, तो उसे त्यागी नहीं कहते। वैसे ही यह
क्रोधादिकका त्यागी नहीं है। तो कैसे त्यागी होता है? पदार्थ अनिष्ट-इष्ट भासित होनेसे
क्रोधादिक होते हैं; जब तत्त्वज्ञानके अभ्याससे कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयमेव
ही क्रोधादिक उत्पन्न नहीं होते; तब सच्चा धर्म होता है।
अनुप्रेक्षाःतथा अनित्यादि चिंतवनसे शरीरादिकको बुरा जान, हितकारी न जानकर
उनसे उदास होना; उसका नाम अनुप्रेक्षा कहता है। सो यह तो जैसे कोई मित्र था तब
उससे राग था और पश्चात् उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ; उसी प्रकार शरीरादिकसे
राग था, पश्चात् अनित्यादि अवगुण अवलोककर उदासीन हुआ; परन्तु ऐसी उदासीनता तो
द्वेषरूप है। अपना और शरीरादिकका जहाँ
जैसा स्वभाव है वैसा पहिचानकर, भ्रमको
मिटाकर, भला जानकर राग नहीं करना और बुरा जानकर द्वेष नहीं करना; ऐसी सच्ची
उदासीनताके अर्थ यथार्थ अनित्यत्वादिकका चिंतवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है।
परीषहजयःतथा क्षुधादिक होने पर उनके नाशका उपाय नहीं करना; उसे परीषह
सहना कहता है। सो उपाय तो नहीं किया और अन्तरंगमें क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मिलनेपर
दुःखी हुआ, रति आदिका कारण मिलने पर सुखी हुआ; तो वे दुःख-सुखरूप परिणाम हैं,
वही आर्तध्यान-रौद्रध्यान हैं। ऐसे भावोंसे संवर कैसे हो? इसलिये दुःखका कारण मिलने
पर दुःखी न हो और सुखका कारण मिलने पर सुखी न हो, ज्ञेयरूपसे उनका जाननेवाला
ही रहे; वही सच्चा परीषहजय है।
चारित्रःतथा हिंसादि सावद्ययोगके त्यागको चारित्र मानता है, वहाँ महाव्रतादिरूप
शुभयोगको उपादेयपनेसे ग्राह्य मानता है। परन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें आस्रव पदार्थका निरूपण करते
हुए महाव्रत-अणुव्रतको भी आस्रवरूप कहा है। वे उपादेय कैसे हों? तथा आस्रव तो बन्धका
साधक है और चारित्र मोक्षका साधक है; इसलिये महाव्रतादिरूप आस्रवभावोंको चारित्रपना
संभव नहीं होता; सकल कषायरहित जो उदासीनभाव उसीका नाम चारित्र है।
जो चारित्रमोहके देशघाती स्पर्द्धकोंके उदयसे महामन्द प्रशस्तराग होता है, वह चारित्रका
मल है। उसे छूटता न जानकर उसका त्याग नहीं करते, सावद्ययोगका ही त्याग करते हैं।
परन्तु जैसे कोई पुरुष कन्दमूलादि बहुत दोषवाली हरितकायका त्याग करता है और कितनी
ही हरितकायोंका भक्षण करता है; परन्तु उसे धर्म नहीं मानता; उसी प्रकार मुनि हिंसादि
तीव्रकषायरूप भावोंका त्याग करते हैं और कितने ही मन्दकषायरूप महाव्रतादिका पालन करते
हैं; परन्तु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानते।