क्रोधादिकका त्यागी नहीं है। तो कैसे त्यागी होता है? पदार्थ अनिष्ट-इष्ट भासित होनेसे
क्रोधादिक होते हैं; जब तत्त्वज्ञानके अभ्याससे कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयमेव
ही क्रोधादिक उत्पन्न नहीं होते; तब सच्चा धर्म होता है।
उससे राग था और पश्चात् उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ; उसी प्रकार शरीरादिकसे
राग था, पश्चात् अनित्यादि अवगुण अवलोककर उदासीन हुआ; परन्तु ऐसी उदासीनता तो
द्वेषरूप है। अपना और शरीरादिकका जहाँ
उदासीनताके अर्थ यथार्थ अनित्यत्वादिकका चिंतवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है।
दुःखी हुआ, रति आदिका कारण मिलने पर सुखी हुआ; तो वे दुःख-सुखरूप परिणाम हैं,
वही आर्तध्यान-रौद्रध्यान हैं। ऐसे भावोंसे संवर कैसे हो? इसलिये दुःखका कारण मिलने
पर दुःखी न हो और सुखका कारण मिलने पर सुखी न हो, ज्ञेयरूपसे उनका जाननेवाला
ही रहे; वही सच्चा परीषहजय है।
हुए महाव्रत-अणुव्रतको भी आस्रवरूप कहा है। वे उपादेय कैसे हों? तथा आस्रव तो बन्धका
साधक है और चारित्र मोक्षका साधक है; इसलिये महाव्रतादिरूप आस्रवभावोंको चारित्रपना
संभव नहीं होता; सकल कषायरहित जो उदासीनभाव उसीका नाम चारित्र है।
परन्तु जैसे कोई पुरुष कन्दमूलादि बहुत दोषवाली हरितकायका त्याग करता है और कितनी
ही हरितकायोंका भक्षण करता है; परन्तु उसे धर्म नहीं मानता; उसी प्रकार मुनि हिंसादि
तीव्रकषायरूप भावोंका त्याग करते हैं और कितने ही मन्दकषायरूप महाव्रतादिका पालन करते
हैं; परन्तु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानते।