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२३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
लिखते? बालक तोतला बोले, परन्तु बड़े तो नहीं बोलते। तथा एक देशकी भाषारूप शास्त्र
दूसरे देशमें जाये, तो वहाँ उसका अर्थ कैसे भासित होगा? इसलिये प्राकृत, संस्कृतादि शुद्ध
शब्दरूप ग्रन्थ रचे हैं।
तथा व्याकरणके बिना शब्दका अर्थ यथावत् भासित नहीं होता; न्यायके बिना लक्षण,
परीक्षा आदि यथावत् नहीं हो सकते — इत्यादि। वचन द्वारा वस्तुके स्वरूपका निर्णय
व्याकरणादि बिना भली-भाँति न होता जानकर उनकी आम्नाय अनुसार कथन किया है।
भाषामें भी उनकी थोड़ी-बहुत आम्नाय आने पर ही उपदेश हो सकता है; परन्तु बहुत आम्नायसे
भली-भाँति निर्णय हो सकता है।
फि र कहोगे कि ऐसा है तो अब भाषारूप ग्रन्थ किसलिये बनाते हैं ?
समाधानः — कालदोषसे जीवोंकी मन्दबुद्धि जानकर किन्हीं जीवोंके जितना ज्ञान होगा
उतना ही होगा — ऐसा विचारकर भाषाग्रन्थ रचते हैं — इसलिये जो जीव व्याकरणादिका
अभ्यास न कर सकें उन्हें ऐसे ग्रन्थों द्वारा ही अभ्यास करना।
तथा जो जीव शब्दोंकी नाना युक्तियोंसहित अर्थ करनेके लिये ही व्याकरणका अवगाहन
करते हैं, वादादि करके महंत होनेके लिये न्यायका अवगाहन करते हैं और चतुराई प्रगट
करनेके लिये काव्यका अवगाहन करते हैं, — इत्यादि लौकिक प्रयोजनसहित इनका अभ्यास
करते हैं वे धर्मात्मा नहीं हैं। इनका बन सके उतना थोड़ा-बहुत अभ्यास करके आत्महितके
अर्थ जो तत्त्वादिकका निर्णय करते हैं वही धर्मात्मा – पण्डित जानना।
तथा कितने ही जीव पुण्य-पापादिक फलके निरूपक पुराणादिक शास्त्रोंका; पुण्य-
पापक्रियाके निरूपक आचारादि शास्त्रोंका, तथा गुणस्थान – मार्गणा, कर्मप्रकृति, त्रिलोकादिके
निरूपक करणानुयोगके शास्त्रोंका अभ्यास करते हैं, परन्तु यदि आप इनका प्रयोजन नहीं
विचारते, तब तो तोते जैसा ही पढ़ना हुआ और यदि इनका प्रयोजन विचारते हैं तो वहाँ
पापको बुरा जानना, पुण्यको भला जानना, गुणस्थानादिकका स्वरूप जान लेना, तथा जितना
इनका अभ्यास करेंगे उतना हमारा भला है, — इत्यादि प्रयोजनका विचार किया है; सो इससे
इतना तो होगा कि नरकादि नहीं होंगे, स्वर्गादिक होंगे; परन्तु मोक्षमार्गकी तो प्राप्ति होगी
नहीं।
प्रथम सच्चा तत्त्वज्ञान हो; वहाँ फि र पुण्य-पापके फलको संसार जाने, शुद्धपयोगसे
मोक्ष माने, गुणस्थानादिरूप जीवका व्यवहारनिरूपण जाने; इत्यादि ज्योंका त्यों श्रद्धान करता
हुआ इनका अभ्यास करे तो सम्यग्ज्ञान हो।