आपरूप, परको पररूप और आस्रवादिका आस्रवादिरूप श्रद्धान नहीं करते। मुखसे तो यथावत्
निरूपण ऐसा भी करें जिसके उपेदशसे अन्य जीव सम्यग्दृष्टि हो जायें। परन्तु जैसे कोई
लड़का स्त्रीका स्वांग बनाकर ऐसा गाना गाये जिसे सुनकर अन्य पुरुष-स्त्री कामरूप हो जायें;
परन्तु वह तो जैसा सीखा वैसा कहता है, उसे कुछ भाव भासित नहीं होता, इसलिये स्वयं
कामासक्त नहीं होता। उसी प्रकार यह जैसा लिखा है वैसे उपदेश देता है; परन्तु स्वयं
अनुभव नहीं करता। यदि स्वयंको श्रद्धान हुआ होता तो अन्य तत्त्वका अंश अन्य तत्त्वमें
न मिलाता; परन्तु इसका ठिकाना नहीं है, इसलिये सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
उसके तो ऐसा भी श्रद्धान है कि यह ग्रन्थ सच्चे हैं, परन्तु तत्त्वश्रद्धान सच्चा नहीं हुआ।
समयसारमें एक ही जीवके धर्मका श्रद्धान, ग्यारह अंगका ज्ञान और महाव्रतादिका पालन करना
लिखा है। प्रवचनसारमें ऐसा लिखा है कि आगमज्ञान ऐसा हुआ जिसके द्वारा सर्व पदार्थोंको
हस्तामलकवत् जानता है। यह भी जानता है कि इनका जाननेवाला मैं हूँ; परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप
हूँ इस प्रकार स्वयंको परद्रव्यसे भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य अनुभव नहीं करता। इसलिये
आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नहीं है।
रहती है, परन्तु उन परिणामोंकी परम्पराका विचार करने पर अभिप्रायमें जो वासना है उसका