Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २३७
सो तत्त्वज्ञानके कारण अध्यात्मरूप द्रव्यानुयोगके शास्त्र हैं और कितने ही जीव उन
शास्त्रोंका भी अभ्यास करते हैं; परन्तु वहाँ जैसा लिखा है वैसा निर्णय स्वयं करके आपको
आपरूप, परको पररूप और आस्रवादिका आस्रवादिरूप श्रद्धान नहीं करते। मुखसे तो यथावत्
निरूपण ऐसा भी करें जिसके उपेदशसे अन्य जीव सम्यग्दृष्टि हो जायें। परन्तु जैसे कोई
लड़का स्त्रीका स्वांग बनाकर ऐसा गाना गाये जिसे सुनकर अन्य पुरुष-स्त्री कामरूप हो जायें;
परन्तु वह तो जैसा सीखा वैसा कहता है, उसे कुछ भाव भासित नहीं होता, इसलिये स्वयं
कामासक्त नहीं होता। उसी प्रकार यह जैसा लिखा है वैसे उपदेश देता है; परन्तु स्वयं
अनुभव नहीं करता। यदि स्वयंको श्रद्धान हुआ होता तो अन्य तत्त्वका अंश अन्य तत्त्वमें
न मिलाता; परन्तु इसका ठिकाना नहीं है, इसलिये सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
इस प्रकार यह ग्यारह अंग तक पढ़े, तथापि सिद्धि नहीं होती। सो समयसारादिमें
मिथ्यादृष्टिको ग्यारह अंगोंका ज्ञान होना लिखा है।
यहाँ कोई कहे कि ज्ञान तो इतना होता है; परन्तु जैसा अभव्यसेनको श्रद्धानरहित
ज्ञान हुआ वैसा होता है?
समाधानःवह तो पापी था, जिसे हिंसादिकी प्रवृत्तिका भय नहीं था। परन्तु जो
जीव ग्रैवेयक आदिमें जाता है उसके ऐसा ज्ञान होता है; वह तो श्रद्धानरहित नहीं है।
उसके तो ऐसा भी श्रद्धान है कि यह ग्रन्थ सच्चे हैं, परन्तु तत्त्वश्रद्धान सच्चा नहीं हुआ।
समयसारमें एक ही जीवके धर्मका श्रद्धान, ग्यारह अंगका ज्ञान और महाव्रतादिका पालन करना
लिखा है। प्रवचनसारमें ऐसा लिखा है कि आगमज्ञान ऐसा हुआ जिसके द्वारा सर्व पदार्थोंको
हस्तामलकवत् जानता है। यह भी जानता है कि इनका जाननेवाला मैं हूँ; परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप
हूँ इस प्रकार स्वयंको परद्रव्यसे भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य अनुभव नहीं करता। इसलिये
आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नहीं है।
इस प्रकार यह सम्यग्ज्ञानके अर्थ जैनशास्त्रोंका अभ्यास करता है, तथापि इसके
सम्यग्ज्ञान नहीं है।
सम्यक्चारित्रका अन्यथारूप
तथा इनके सम्यक्चारित्रके अर्थ कैसी प्रवृत्ति है सो कहते हैंः
बाह्य क्रिया पर तो इनकी दृष्टि है और परिणाम सुधरने-बिगड़नेका विचार नहीं है।
और यदि परिणामोंका भी विचार हो तो जैसे अपने परिणाम होते दिखाई दें उन्हीं पर दृष्टि
रहती है, परन्तु उन परिणामोंकी परम्पराका विचार करने पर अभिप्रायमें जो वासना है उसका