Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २३९
यदि परीषह नहीं सहे जाते थे, विषय-वासना नहीं छूटी थी; तो ऐसी प्रतिज्ञा किसलिये
की? सुगम विषय छोड़कर पश्चात् विषम विषयोंका उपाय करना पड़े ऐसा कार्य क्यों करे?
वहाँ तो उलटा रागभाव तीव्र होता है।
अथवा प्रतिज्ञामें दुःख हो तब परिणाम लगानेके लिये कोई आलम्बन विचारता है।
जैसेउपवास करके फि र क्रीडा करता है, कितने ही पापी जुआ आदि कुव्यसनोंमें लग
जाते हैं अथवा सो रहना चाहते हैं। ऐसा जानते हैं कि किसी प्रकार काल पूरा करना।
इसीप्रकार अन्य प्रतिज्ञामें जानना।
अथवा कितने ही पापी ऐसे भी हैं पहले प्रतिज्ञा करते हैं, बादमें उससे दुःखी हों
तब प्रतिज्ञा छोड़ देते हैं। प्रतिज्ञा लेना-छेड़ना उनको खेलमात्र है; सो प्रतिज्ञा भंग करनेका
महापाप है; इससे तो प्रतिज्ञा न लेना भला है।
इस प्रकार पहले तो निर्विचार होकर प्रतिज्ञा करते हैं और पश्चात् ऐसी दशा होती
है।
जैनधर्ममें प्रतिज्ञा न लेनेका दण्ड तो है नहीं। जैनधर्ममें तो ऐसा उपदेश है कि
पहले तो तत्त्वज्ञानी हो; फि र उसका त्याग कर उसका दोष पहिचाने। त्याग करनेमें जो
गुण हो उसे जाने; फि र अपने परिणामोंको ठीक करे; वर्तमान परिणामोंके ही भरोसे प्रतिज्ञा
न कर बैठे; भविष्यमें निर्वाह होता जाने तो प्रतिज्ञा करे; तथा शरीरकी शक्ति व द्रव्य, क्षेत्र,
काल, भावादिकका विचार करे।
इस प्रकार विचार करके फि र प्रतिज्ञा करनी। वह भी
ऐसी करनी जिससे प्रतिज्ञाके प्रति निरादरभाव न हो, परिणाम चढ़ते रहें। ऐसी जैनधर्मकी
आम्नाय है।
यहाँ कोई कहे कि चांडालादिकने प्रतिज्ञा की, उनके इतना विचार कहाँ होता है?
समाधानः
मरणपर्यन्त कष्ट हो तो हो, परन्तु प्रतिज्ञा नहीं छोड़नाऐसा विचार
करके वे प्रतिज्ञा करते हैं; प्रतिज्ञाके प्रति निरादरपना नहीं होता।
और सम्यग्दृष्टि जो प्रतिज्ञा करते हैं सो तत्त्वज्ञानादिपूर्वक ही करते हैं।
तथा जिनके अन्तरंग विरक्तता नहीं और बाह्यप्रतिज्ञा धारण करते हैं, वे प्रतिज्ञाके
पहले और बादमें जिसकी प्रतिज्ञा करें उसमें अति आसक्त होकर लगते हैं। जैसे उपवासके
धारणे-पारणेके भोजनमें अति लोभी होकर गरिष्ठादि भोजन करते हैं, शीघ्रता बहुत करते हैं।
जैसे
जलको रोक रखा था, जब वह छूटा तभी बहुत प्रवाह चलने लगा; उसी प्रकार प्रतिज्ञा