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२४० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
द्वारा विषयवृत्ति रोक रखी थी, अंतरंग आसक्ति बढ़ती गई और प्रतिज्ञा पूर्ण होते ही अत्यन्त
विषयवृत्ति होने लगी; सो प्रतिज्ञाके कालमें विषयवासना मिटी नहीं, आगे-पीछे उसके बदले
अधिक राग किया; सो फल तो रागभाव मिटनेसे होगा। इसलिये जितनी विरक्ति हुई हो
उतनी प्रतिज्ञा करना। महामुनि भी थोड़ी प्रतिज्ञा करके फि र आहारादिमें उछटि (कमी) करते
हैं और बड़ी प्रतिज्ञा करते हैं। तो अपनी शक्ति देखकर करते हैं। जिसप्रकार परिणाम
चढ़ते रहें वैसा करते हैं। प्रमाद भी न हो और आकुलता भी उत्पन्न न हो — ऐसी प्रवृत्ति
कार्यकारी जानना।
तथा जिनकी धर्म पर दृष्टि नहीं है वे कभी तो बड़ा धर्म आचरते हैं, कभी अधिक
स्वच्छन्द होकर प्रवर्तते हैं। जैसे — किसी धर्मपर्वमें तो बहुत उपवासादि करते हैं, किसी
धर्मपर्वमें बारम्बार भोजनादि करते हैं। यदि धर्मबुद्धि हो तो यथायोग्य सर्व धर्मपर्वोंमें योग्य
संयमादि धारण करें। तथा कभी तो किसी धर्मकार्यमें बहुत धन खर्च करते हैं और कभी
कोई धर्मकार्य आ पहुँचा हो तब भी वहाँ थोड़ा भी धन खर्च नहीं करते। सो धर्मबुद्धि
हो तो यथाशक्ति यथायोग्य सभी धर्मकार्योमें धन खर्चते रहें। — इसीप्रकार अन्य जानना।
तथा जिनके सच्चा धर्मसाधन नहीं है वे कोई क्रिया तो बहुत बड़ी अंगीकार करते हैं,
तथा कोई हीन क्रिया करते हैं। जैसे — धनादिकका तो त्याग किया और अच्छा भोजन, अच्छे
वस्त्र इत्यादि विषयोंमें विशेष प्रवर्तते हैं। तथा कोई जामा पहिनना, स्त्री-सेवन करना इत्यादि
कार्योंका तो त्याग करके धर्मात्मापना प्रगट करते हैं; और पश्चात् खोटे व्यापारादि कार्य करते
हैं, लोकनिंद्य पापक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं। — इसीप्रकार कोई क्रिया अति उच्च तथा कोई क्रिया
अति नीची करते हैं। वहाँ लोकनिंद्य होकर धर्मकी हँसी कराते हैं कि देखो, अमुक धर्मात्मा
ऐसे कार्य करता है। जैसे कोई पुरुष एक वस्त्र तो अति उत्तम पहिने और एक वस्त्र अति
हीन पहिने तो हँसी ही होती है; उसी प्रकार यह भी हँसीको प्राप्त होता है।
सच्चे धर्मकी तो यह आम्नाय है कि जितने अपने रागादि दूर हुए हों उसके अनुसार
जिस पदमें जो धर्मक्रिया सम्भव हो वह सब अंगीकार करे। यदि अल्प रागादि मिटे हों
तो निचले पदमें ही प्रवर्तन करे; परन्तु उच्चपद धारण करके नीची क्रिया न करे।
यहाँ प्रश्न है कि स्त्री-सेवनादि त्याग ऊपरकी प्रतिमामें कहा है; इसलिये निचली
अवस्थावाला उनका त्याग करे या नहीं?
समाधानः — निचली अवस्थावाला उनका सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, कोई दोष
लगता है, इसलिये ऊपरकी प्रतिमामें त्याग कहा है। निचली अवस्थामें जिस प्रकारका त्याग