Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा वे अरहंतादिक ही परम मंगल हैं। उनमें भक्तिभाव होनेसे परम मंगल होता
है। ‘मंग’ अर्थात् सुख, उसे ‘लाति’ अर्थात् देता है; अथवा ‘मं’ अर्थात् पाप, उसे ‘गालयति’
अर्थात् गाले, दूर करे उसका नाम मंगल है। इस प्रकार उनके द्वारा पूर्वोक्त प्रकारसे दोनों
कार्योंकी सिद्धि होती है, इसलिये उनके परम मंगलपना संभव है।
मंगलाचरण करनेका कारण
यहाँ कोई पूछे किप्रथम ग्रंथके आदिमें मंगल ही किया सो क्या कारण है ? उसका
उत्तरःसुखसे ग्रंथकी समाप्ति हो, पापके कारण कोई विघ्न न हो, इसलिये यहाँ प्रथम मंगल
किया है।
यहाँ तर्कजो अन्यमती इसप्रकार मंगल नहीं करते हैं उनके भी ग्रन्थकी समाप्ति
तथा विघ्नका न होना देखते हैं वहाँ क्या हेतु है ? उसका समाधानःअन्यमती जो ग्रन्थ
करते हैं उसमें मोहके तीव्र उदयसे मिथ्यात्वकषायभावोंका पोषण करनेवाले विपरीत अर्थोंको
धरते (रखते) हैं, इसलिये उसकी निर्विघ्न समाप्ति तो ऐसे मंगल किये बिना ही हो। यदि
ऐसे मंगलोंसे मोह मंद हो जाये तो वैसा विपरीत कार्य कैसे बने ? तथा हम भी ग्रन्थ करते
हैं उसमें मोहकी मंदताके कारण वीतराग तत्त्वज्ञानका पोषण करनेवाले अर्थोंको धरेंगे (रखेंगे);
उसकी निर्विघ्न समाप्ति ऐसे मंगल करनेसे ही हो। यदि ऐसे मंगल न करें तो मोहकी तीव्रता
रहे, तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने ?
पुनश्च, वह कहता है किऐसे तो मानेंगे; परन्तु कोई ऐसा मंगल नहीं करता उसके
भी सुख दिखाई देता है, पापका उदय नहीं दिखाई देता और कोई ऐसा मंगल करता है
उसके भी सुख नहीं दिखाई देता, पापका उदय दिखाई देता है
इसलिये पूर्वोक्त मंगलपना
कैसे बने ? उससे कहते हैंः
जीवोंके संक्लेशविशुद्ध परिणाम अनेक जातिके हैं। उनके द्वारा अनेक कालोंमें पहले
बँधे हुए कर्म एक कालमें उदय आते हैं। इसलिये जिस प्रकार पूर्वमें बहुत धनका संचय
हो उसके बिना कमाए भी धन दिखाई देता है और ऋण दिखाई नहीं देता, तथा जिसके
पूर्वमें ऋण बहुत हो उसके धन कमाने पर भी ऋण दिखाई देता है धन दिखाई नहीं देता;
परन्तु विचार करनेसे कमाना तो धनहीका कारण है, ऋणका कारण नहीं है। उसी प्रकार
जिसके पूर्वमें बहुत पुण्य बंध हुआ हो उसके यहाँ ऐसा मंगल किये बिना भी सुख दिखाई
देता है, पापका उदय दिखाई नहीं देता। और जिसके पूर्वमें बहुत पापबंध हुआ हो उसके
यहाँ ऐसा मंगल करने पर भी सुख दिखाई नहीं देता, पापका उदय दिखाई देता है; परन्तु