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२४४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
भी नहीं है। इसप्रकार परद्रव्यका तो दोष देखना मिथ्याभाव है। रागादिभाव ही बुरे हैं।
परन्तु इसके ऐसी समझ नहीं है; यह परद्रव्योंका दोष देखकर उनमें द्वेषरूप उदासीनता करता
है। सच्ची उदासीनता तो उसका नाम है कि किसी भी द्रव्यका दोष या गुण नहीं भासित हो,
इसलिये किसीको बुरा-भला न जानें; स्वको स्व जाने, परको पर जाने, परसे कुछ भी प्रयोजन
मेरा नहीं है ऐसा मानकर साक्षीभूत रहे। सो ऐसी उदासीनता ज्ञानीके ही होती है।
तथा यह उदासीन होकर शास्त्रमें जो अणुव्रत-महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र कहा उसे
अंगीकार करता है, एकदेश अथवा सर्वदेश हिंसादि पापोंको छोड़ता है; उनके स्थान पर
अहिंसादिक पुण्यरूप कार्योंमें प्रवर्तता है। तथा जिस प्रकार पर्यायाश्रित पापकार्योंमें अपना
कर्तापना मानता था, उसी प्रकार अब पुण्यकार्योंमें अपना कर्तापना मानने लगा। — इसप्रकार
पर्यायाश्रित कार्योंमें अहंबुद्धि माननेकी समानता हुई। जैसे — ‘मैं जीवोंको मारता हूँ, मैं
परिग्रहधारी हूँ’ — इत्यादि मान्यता थी; उसी प्रकार मैं ‘जीवोंकी रक्षा करता हूँ, मैं नग्न,
परिग्रहरहित हूँ’ — ऐसी मान्यता हुई। सो पर्यायाश्रित कार्योंमें अहंबुद्धि वही मिथ्यादृष्टि है।
यही समयसार कलश में कहा हैः —
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः।
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षुतां।।१९९।।
अर्थः — जो जीव मिथ्या-अंधकार व्याप्त होते हुए अपनेको पर्यायाश्रित क्रियाका कर्ता
मानते हैं वे जीव मोक्षाभिलाषी होने पर भी जैसे अन्यमती सामान्य मनुष्योंको मोक्ष नहीं होता;
उसी प्रकार उनको मोक्ष नहीं होता; क्योंकि कर्तापनेके श्रद्धानकी समानता है।
तथा इसप्रकार आप कर्ता होकर श्रावकधर्म अथवा मुनिधर्मकी क्रियाओंमें मन-वचन-
कायकी प्रवृत्ति निरन्तर रखता है, जैसे उन क्रियाओंमें भंग न हो वैसे प्रवर्तता है; परन्तु
ऐसे भाव तो सराग हैं; चारित्र है वह वीतरागभावरूप है। इसलिये ऐसे साधनको मोक्षमार्ग
मानना मिथ्याबुद्धि है।
प्रश्नः — सराग-वीतराग भेदसे दो प्रकारका चारित्र कहा है सो किस प्रकार है?
उत्तरः — जैसे चावल दो प्रकारके हैं — एक तुषसहित हैं और एक तुषरहित हैं।
वहाँ ऐसा जानना कि तुष है वह चावलका स्वरूप नहीं है, चावलमें दोष है। कोई समझदार
तुषरहित चावलका संग्रह करता था; उसे देखकर कोई भोला तुषोंको ही चावल मानकर संग्रह
करे तो वृथा खेदखिन्न होगा। वैसे चारित्र दो प्रकारका है — एक सराग है, एक वीतराग