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सातवाँ अधिकार ][ २४५
है। वहाँ ऐसा जानना कि जो राग है वह चारित्रका स्वरूप नहीं है, चारित्रमें दोष है।
तथा कितने ही ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्र धारण करते हैं; उन्हें देखकर कोई अज्ञानी
प्रशस्तरागको ही चारित्र मानकर संग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होगा।
यहाँ कोई कहेगा कि पापक्रिया करनेसे तीव्र रागादिक होते थे, अब इन क्रियाओंको
करने पर मन्द राग हुआ; इसलिये जितने अंशमें रागभाव कम हुआ उतने अंशोंमें तो चारित्र
कहो, जितने अंशोंमें राग रहा उतने अंशोंमें राग कहो। — इस प्रकार उसके सराग-चारित्र
सम्भव है।
समाधानः — यदि तत्त्वज्ञानपूर्वक ऐसा हो, तब तो तुम कहते हो उसी प्रकार है।
तत्त्वज्ञानके बिना उत्कृष्ट (उग्र) आचरण होने पर भी असंयम नाम ही पाता है, क्योंकि रागभाव
करनेका अभिप्राय नहीं मिटता।
वही बतलाते हैंः — द्रव्यलिंगी मुनि राज्यादिकको छोड़कर निर्ग्रन्थ होता है, अट्ठाईस
मूलगुणोंका पालन करता है, उग्रसे उग्र अनशनादि बहुत तप करता है, क्षुधादिक बाईस परीषह
सहता है, शरीरके खंड-खंड होने पर भी व्यग्र नहीं होता, व्रतभंगके अनेक कारण मिलने
पर भी दृढ़ रहता है, किसीसे क्रोध नहीं करता, ऐसे साधनोंका मान नहीं करता, ऐसे साधनोंमें
कोई कपट नहीं है, इन साधनों द्वारा इस लोक-परलोकके विषयसुखको नहीं चाहता; ऐसी
उसकी दशा हुई है। यदि ऐसी दशा न हो तो ग्रैवेयक पर्यन्त कैसे पहुँचे? परन्तु उसे
मिथ्यादृष्टि असंयमी ही शास्त्रमें कहा है। उसका कारण यह है कि उसके तत्त्वोंका श्रद्धान –
ज्ञान सच्चा नहीं हुआ है। पहले वर्णन किया उस प्रकार तत्त्वोंका श्रद्धान – ज्ञान हुआ है;
उसी प्रकार अभिप्रायसे सर्वसाधन करता है; परन्तु उन साधनोंके अभिप्राय की परम्पराका
विचार करने पर कषायोंका अभिप्राय आता है।
किस प्रकार? सो सुनोः — यह पापके कारण रागादिकको तो हेय जानकर छोड़ता
है; परन्तु पुण्यके कारण प्रशस्तरागको उपादेय मानता है, उसकी वृद्धिका उपाय करता है,
सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायको उपादेय माना तब कषाय करनेका ही श्रद्धान
रहा। अप्रशस्त परद्रव्योंसे द्वेष करके प्रशस्त परद्रव्योंमें राग करनेका अभिप्राय हुआ, कुछ
परद्रव्योंमें साम्यभावरूप अभिप्राय नहीं हुआ।
यहाँ प्रश्न है कि सम्यग्दृष्टि भी तो प्रशस्तरागका उपाय रखता है?
उत्तरः — जैसे किसीका बहुत दण्ड होता था, वह थोड़ा दण्ड देनेका उपाय रखता
है, थोड़ा दण्ड देकर हर्ष भी मानता है, परन्तु श्रद्धानमें दण्ड देना अनिष्ट ही मानता है;