Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 241 of 350
PDF/HTML Page 269 of 378

 

background image
-
सातवाँ अधिकार ][ २५१
तथा षट्पाहुड़में कहा हैः
जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।३१।। (मोक्षपाहुड़)
अर्थःजो व्यवहारमें सोता है वह योगी अपने कार्यमें जागता है। तथा जो
व्यवहारमें जागता है वह अपने कार्यमें सोता है।
इसलिये व्यवहारनयका श्रद्धान छोड़कर निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है।
व्यवहारनय स्वद्रव्य
परद्रव्यको व उनके भावोंको व कारणकार्यादिकको किसीको
किसीमें मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है; इसलिये उसका त्याग
करना। तथा निश्चयनय उन्हींको यथावत् निरूपण करता है, किसीको किसीमें नहीं मिलाता
है; सो ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है; इसलिये उसका श्रद्धान करना।
यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्गमें दोनों नयोंका ग्रहण करना कहा है,
सो कैसे?
समाधानःजिनमार्गमें कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो
‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ऐसा जानना। तथा कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे
‘ऐसे है नहीं, निमित्तादिकी अपेक्षा उपचार किया है’ऐसा जानना। इसप्रकार जाननेका नाम
ही दोनों नयोंका ग्रहण है। तथा दोनों नयोंके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानकर ‘ऐसे भी
है, ऐसे भी है’
इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तनसे तो दोनों नयोंका ग्रहण करना नहीं कहा है।
फि र प्रश्न है कि यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उसका उपदेश जिनमार्गमें किसलिये
दिया? एक निश्चयनयका ही निरूपण करना था।
समाधानःऐसा ही तर्क समयसारमें किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है :
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।।।।
अर्थःजिस प्रकार अनार्य अर्थात् म्लेच्छको म्लेच्छभाषा बिना अर्थ ग्रहण करानेमें
कोई समर्थ नहीं है; उसी प्रकार व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है; इसलिये
व्यवहारका उपदेश है।
तथा इसी सूत्रकी व्याख्यामें ऐसा कहा है कि ‘‘व्यवहारनयो नानुसर्त्तव्य’’
१. एवं म्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयोऽथ च
ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्वयहारनयो नानुसर्तव्यः। (समयसार गाथा ८ की आत्मख्याति टीका)