-
२५२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इसका अर्थ हैः — इस निश्चयको अंगीकार करनेके लिये व्यवहार द्वारा उपदेश देते
हैं; परन्तु व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्नः — व्यवहार बिना निश्चयका उपदेश कैसे नहीं होता? और व्यवहारनय कैसे
अंगीकार नहीं करना? सो कहिए।
समाधानः — निश्चयसे तो आत्मा परद्रव्योंसे भिन्न, स्वभावोंसे अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु
है; उसे जो नहीं पहिचानते, उनसे इसी प्रकार कहते रहें तब तो वे समझ नहीं पायें।
इसलिये उनको व्यवहारनयसे शरीरादिक परद्रव्योंकी सापेक्षता द्वारा नर-नारक-पृथ्वीकायादिरूप
जीवके विशेष किये — तब मनुष्य जीव है, नारकी जीव है, इत्यादि प्रकार सहित उन्हें जीवकी
पहिचान हुई।
अथवा अभेद वस्तुमें भेद उत्पन्न करके ज्ञान – दर्शनादि गुण-पर्यायरूप जीवके विशेष
किये तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है; — इत्यादि प्रकार सहित उनको जीवकी
पहिचान हुई।
तथा निश्चयसे वीतरागभाव मोक्षमार्ग है; उसे जो नहीं पहिचानते उनको ऐसे ही कहते
रहें तो वे समझ नहीं पायें। तब उनको व्यवहारनयसे, तत्त्वश्रद्धान – ज्ञानपूर्वक परद्रव्यके निमित्त
मिटनेकी सापेक्षता द्वारा व्रत, शील, संयमादिरूप वीतरागभावके विशेष बतलाये; तब उन्हें
वीतरागभावकी पहिचान हुई।
इसी प्रकार अन्यत्र भी व्यवहार बिना निश्चयके उपदेशका न होना जानना।
तथा यहाँ व्यवहारसे नर – नारकादि पर्यायको ही जीव कहा, सो पर्यायको ही जीव
नहीं मान लेना। पर्याय तो जीव – पुद्गलके संयोगरूप हैं। वहाँ निश्चयसे जीवद्रव्य भिन्न है,
उसहीको जीव मानना। जीवके संयोगसे शरीरादिकको भी उपचारसे जीव कहा, सो कथनमात्र
ही है, परमार्थसे शरीरादिक जीव होते नहीं — ऐसा ही श्रद्धान करना।
तथा अभेद आत्मामें ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना,
क्योंकि भेद तो समझानेके अर्थ किये हैं। निश्चयसे आत्मा अभेद ही है; उसहीको जीव वस्तु
मानना। संज्ञा – संख्यादिसे भेद कहे सो कथनमात्र ही हैं; परमार्थसे भिन्न-भिन्न हैं नहीं; —
ऐसा ही श्रद्धान करना।
तथा परद्रव्यका निमित्त मिटानेकी अपेक्षासे व्रत – शील – संयमादिकको मोक्षमार्ग कहा, सो
इन्हींको मोक्षमार्ग नहीं मान लेना; क्योंकि परद्रव्यका ग्रहण-त्याग आत्माके हो तो आत्मा
परद्रव्यका कर्ता-हर्ता हो जाये। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्यके आधीन है नहीं; इसलिये