Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh
શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢશ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - - ૩૬૪૨૫૦
सातवाँ अधिक ार ][ २५५
इस प्रकार नयों द्वारा एक ही वस्तुको एक भाव-अपेक्षा ‘ऐसा भी मानना और ऐसा
भी मानना,’ वह तो मिथ्याबुद्धि है; परन्तु भिन्न-भिन्न भावोंकी अपेक्षा नयोंकी प्ररूपणा है —
ऐसा मानकर यथासम्भव वस्तुको मानना सो सच्चा श्रद्धान है। इसलिये मिथ्यादृष्टि अनेकान्तरूप
वस्तुको मानता है, परन्तु यथार्थ भावको पहिचानकर नहीं मान सकता — ऐसा जानना।
तथा इस जीवके व्रत, शील, संयमादिकका अंगीकार पाया जाता है, सो व्यवहारसे
‘ये भी मोक्षके कारण हैं’ — ऐसा मानकर उन्हें उपादेय मानता है; सो जैसे पहले केवल
व्यवहारावलम्बी जीवके अयथार्थपना कहा था वैसे ही इसके भी अयथार्थपना जानना।
तथा यह ऐसा भी मानता है कि यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करने योग्य है; परन्तु
इसमें ममत्व नहीं करना। सो जिसका आप कर्ता हो, उसमें ममत्व कैसे नहीं किया जाय?
आप कर्ता नहीं है तो ‘मुझको करने योग्य है’ — ऐसा भाव कैसे किया? और यदि कर्ता
है तो वह अपना कर्म हुआ, तब कर्ता-कर्म सम्बन्ध स्वयमेव ही हुआ; सो ऐसी मान्यता
तो भ्रम है।
तो कैसे है? बाह्य व्रतादिक हैं वे तो शरीरादि परद्रव्यके आश्रित हैं, परद्रव्यका आप
कर्ता है नहीं; इसलिये उसमें कर्तृत्वबुद्धि भी नहीं करना और वहाँ ममत्व भी नहीं करना।
तथा व्रतादिकमें ग्रहण-त्यागरूप अपना शुभोपयोग हो, वह अपने आश्रित है, उसका आप
कर्ता है; इसलिये उसमें कर्त्तृत्वबुद्धि भी मानना और वहाँ ममत्व भी करना। परन्तु इस
शुभोपयोगको बन्धका ही कारण जानना, मोक्षका कारण नहीं जानना, क्योंकि बन्ध और मोक्षके
तो प्रतिपक्षीपना है; इसलिये एक ही भाव पुण्यबन्धका भी कारण हो और मोक्षका भी कारण
हो — ऐसा मानना भ्रम है।
इसलिये व्रत-अव्रत दोनों विकल्परहित, जहाँ परद्रव्यके ग्रहण-त्यागका कुछ प्रयोजन नहीं
है — ऐसा उदासीन वीतराग शुद्धोपयोग वही मोक्षमार्ग है। तथा निचली दशामें कितने ही
जीवोंके शुभोपयोग और शुद्धोपयोगका युक्तपना पाया जाता है; इसलिये उपचारसे व्रतादिक
शुभोपयोगको मोक्षमार्ग कहा है; वस्तुका विचार करने पर शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है;
क्योंकि बन्धका कारण वह ही मोक्षका घातक है — ऐसा श्रद्धान करना।
इसप्रकार शुद्धोपयोगक ो ही उपादेय मानकर उसका उपाय करना और शुभोपयोग –
अशुभोपयोगको हेय जानकर उनके त्यागका उपाय करना। जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके वहाँ
अशुभोपयोगको छोड़कर शुभमें ही प्रवर्तन करना, क्योंकि शुभोपयोगकी अपेक्षा अशुभोपयोगमें
अशुद्धताकी अधिकता है। तथा शुद्धोपयोग हो तब तो परद्रव्यका साक्षीभूत ही रहता है,