Moksha-Marg Prakashak (Hindi) (Original language).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh
શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢશ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - - ૩૬૪૨૫૦
२५६ ] [ मोक्षमार्गप्रक ाशक
वहाँ तो कुछ परद्रव्यका प्रयोजन ही नहीं है। शुभोपयोग हो वहाँ बाह्य व्रतादिककी प्रवृत्ति
होती है और अशुभोपयोग हो वहाँ बाह्य अव्रतादिककी प्रवृत्ति होती है; क्योंकि अशुद्धोपयोगके
और परद्रव्यकी प्रवृत्तिके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है। तथा पहले अशुभोपयोग
छूटकर शुभोपयोग हो, फि र शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग हो
ऐसी क्रम-परिपाटी है।
तथा कोई ऐसा माने कि शुभोपयोग है सो शुद्धोपयोगका कारण है; सो जैसे अशुभोपयोग
छूटकर शुभोपयोग होता है, वैसे शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग होता है। ऐसा ही कार्य-
कारणपना हो, तो शुभोपयोगका कारण अशुभोपयोग ठहरे। अथवा द्रव्यलिंगीके शुभोपयोग तो
उत्कृष्ट होता है, शुद्धोपयोग होता ही नहीं; इसलिये परमार्थसे इनके कारण-कार्यपना है नहीं।
जैसे
रोगीको बहुत रोग था, पश्चात् अल्प रोग रहा, तो वह अल्प रोग तो निरोग होनेका
कारण है नहीं। इतना है कि अल्प रोग रहने पर निरोग होनेका उपाय करे तो हो जाये;
परन्तु यदि अल्प रोगको ही भला जानकर उसको रखनेका यत्न करे तो निरोग कैसे हो? उसी
प्रकार कषायीके तीव्रकषायरूप अशुभोपयोग था, पश्चात् मन्दकषायरूप शुभोपयोग हुआ, तो वह
शुभोपयोग तो निःकषाय शुद्धोपयोग होनेका कारण है नहीं। इतना है कि शुभोपयोग होने पर
शुद्धोपयोगका यत्न करे तो हो जाये; परन्तु यदि शुभोपयोगको ही भला जानकर उसका साधन
किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे हो? इसलिये मिथ्यादृष्टिका शुभोपयोग तो शुद्धोपयोगका कारण
है नहीं, सम्यग्दृष्टिको शुभोपयोग होने पर निकट शुद्धोपयोग प्राप्त हो
ऐसी मुख्यतासे कहीं
शुभोपयोगको शुद्धोपयोगका कारण भी कहते हैंऐसा जानना।
तथा यह जीव अपनेको निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्गका साधक मानता है। वहाँ पूर्वोक्त
प्रकारसे आत्माको शुद्ध माना सो तो सम्यग्दर्शन हुआ; वैसा ही जाना सो सम्यग्ज्ञान हुआ;
वैसा ही विचारमें प्रवर्तन किया सो सम्यक्चारित्र हुआ। इसप्रकार तो अपनेको निश्चयरत्नत्रय
हुआ मानता है; परन्तु मैं प्रत्यक्ष अशुद्ध; सो शुद्ध कैसे मानता-जानता-विचारता हूँ
इत्यादि
विवेकरहित भ्रमसे संतुष्ट होता है।
तथा अरहंतादिके सिवा अन्य देवादिकको नहीं मानता, व जैनशास्त्रानुसार जीवादिकके
भेद सीख लिये हैं उन्हींको मानता है औरोंको नहीं मानता, वह तो सम्यग्दर्शन हुआ; तथा
जैनशास्त्रोंके अभ्यासमें बहुत प्रवर्तता है सो सम्यग्ज्ञान हुआ; तथा व्रतादिरूप क्रियाओंमें प्रवर्तता
है सो सम्यक्चारित्र हुआ।
इसप्रकार अपनेको व्यवहाररत्नत्रय हुआ मानता है। परन्तु
व्यवहार तो उपचारका नाम है; सो उपचार भी तो तब बनता है जब सत्यभूत निश्चयरत्नत्रयके
कारणादिक हों। जिस प्रकार निश्चयरत्नत्रय सध जाए उसी प्रकार इन्हें साधे तो व्यवहारपना
भी सम्भव हो; परन्तु इसे तो सत्यभूत निश्चयरत्नत्रय की पहिचान ही हुई नहीं, तो यह इसप्रकार