होती है और अशुभोपयोग हो वहाँ बाह्य अव्रतादिककी प्रवृत्ति होती है; क्योंकि अशुद्धोपयोगके
और परद्रव्यकी प्रवृत्तिके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है। तथा पहले अशुभोपयोग
छूटकर शुभोपयोग हो, फि र शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग हो
कारणपना हो, तो शुभोपयोगका कारण अशुभोपयोग ठहरे। अथवा द्रव्यलिंगीके शुभोपयोग तो
उत्कृष्ट होता है, शुद्धोपयोग होता ही नहीं; इसलिये परमार्थसे इनके कारण-कार्यपना है नहीं।
जैसे
परन्तु यदि अल्प रोगको ही भला जानकर उसको रखनेका यत्न करे तो निरोग कैसे हो? उसी
प्रकार कषायीके तीव्रकषायरूप अशुभोपयोग था, पश्चात् मन्दकषायरूप शुभोपयोग हुआ, तो वह
शुभोपयोग तो निःकषाय शुद्धोपयोग होनेका कारण है नहीं। इतना है कि शुभोपयोग होने पर
शुद्धोपयोगका यत्न करे तो हो जाये; परन्तु यदि शुभोपयोगको ही भला जानकर उसका साधन
किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे हो? इसलिये मिथ्यादृष्टिका शुभोपयोग तो शुद्धोपयोगका कारण
है नहीं, सम्यग्दृष्टिको शुभोपयोग होने पर निकट शुद्धोपयोग प्राप्त हो
वैसा ही विचारमें प्रवर्तन किया सो सम्यक्चारित्र हुआ। इसप्रकार तो अपनेको निश्चयरत्नत्रय
हुआ मानता है; परन्तु मैं प्रत्यक्ष अशुद्ध; सो शुद्ध कैसे मानता-जानता-विचारता हूँ
जैनशास्त्रोंके अभ्यासमें बहुत प्रवर्तता है सो सम्यग्ज्ञान हुआ; तथा व्रतादिरूप क्रियाओंमें प्रवर्तता
है सो सम्यक्चारित्र हुआ।
कारणादिक हों। जिस प्रकार निश्चयरत्नत्रय सध जाए उसी प्रकार इन्हें साधे तो व्यवहारपना
भी सम्भव हो; परन्तु इसे तो सत्यभूत निश्चयरत्नत्रय की पहिचान ही हुई नहीं, तो यह इसप्रकार