Moksha-Marg Prakashak (Hindi) (Original language).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh
શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢશ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - - ૩૬૪૨૫૦
सातवाँ अधिक ार ][ २६१
नियम है, उसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता। व्रतादिका नियम है नहीं; बहुत जीव तो पहले
सम्यक्त्व हो पश्चात् ही व्रतादिकको धारण करते हैं, किन्हींको युगपत् भी हो जाते हैं।
इसप्रकार यह तत्त्वविचारवाला जीव सम्यक्त्वका अधिकारी है; परन्तु उसके सम्यक्त्व हो ही
हो, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि शास्त्रमें सम्यक्त्व होनेसे पूर्व पंचलब्धियोंका होना कहा है।
पाँच लब्धियोंका स्वरूप
क्षयोपशम, विशुद्ध, देशना, प्रायोग्य, करण। वहाँ जिसके होने पर तत्त्वविचार हो
सकेऐसा ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षयोपशम हो अर्थात् उदयकालको प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकोंके
निषेकोंके उदयका अभाव सो क्षय, तथा अनागतकालमें उदय आने योग्य उन्हींका सत्तारूप
रहना उपशम
ऐसी देशघाती स्पर्द्धकोंके उदय सहित कर्मोंकी अवस्था उसका नाम क्षयोपशम
है; उसकी प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है।
तथा मोहका मन्द उदय आनेसे मन्दकषायरूप भाव हों कि जहाँ तत्त्वविचार हो सके
तो विशुद्धलब्धि है।
तथा जिनदेवके उपदिष्ट तत्त्वका धारण हो, विचार हो, सो देशनालब्धि है। जहाँ
नरकादिमें उपदेशका निमित्त न हो वहाँ वह पूर्व संस्कारसे होती है।
तथा कर्मोंकी पूर्वसत्ता अंतःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण रह जाये और नवीन बन्ध
अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण उसके संख्यातवें भागमात्र हो, वह भी उस लब्धिकालसे लगाकर क्रमशः
घटता जाये और कितनी ही पापप्रकृत्तियोंका बन्ध क्रमशः मिटता जाये
इत्यादि योग्य
अवस्थाका होना सो प्रायोग्यलब्धि है।
सो ये चारों लब्धियाँ भव्य या अभव्यके होती हैं। ये चार लब्धियाँ होनेके बाद
सम्यक्त्व हो तो हो, न हो तो नहीं भी होऐसा ‘लब्धिसार’ में कहा है। इसलिये उस
तत्त्वविचारवालेको सम्यक्त्व होनेका नियम नहीं है। जैसेकिसीको हितकी शिक्षा दी, उसे
जानकर वह विचार करे कि यह जो शिक्षा दी सो कैसे है? पश्चात् विचार करने पर उसके
‘ऐसे ही है’
ऐसी उस शिक्षाकी प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य विचारमें
लगकर उस शिक्षाका निर्धार न करे तो प्रतीति नहीं भी हो; उसी प्रकार श्रीगुरुने तत्त्वोपदेश
दिया, उसे जानकर विचार करे कि यह उपदेश दिया सो किस प्रकार है? पश्चात् विचार
करने पर उसके ‘ऐसा ही है’
ऐसी प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य
विचारमें लगकर उपदेशका निर्धार न करे तो प्रतीति नहीं भी हो, सो मूल कारण मिथ्याकर्म
१. लब्धिसार, गाथा ३