Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh
શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢશ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - - ૩૬૪૨૫૦
२६० ] [ मोक्षमार्गप्रक ाशक
इस प्रकार जाननेके अर्थ कभी स्वयं ही विचार करता है, कभी शास्त्र पढ़ता है,
कभी सुनता है, कभी अभ्यास करता है, कभी प्रश्नोत्तर करता है, — इत्यादिरूप प्रवर्तता है।
अपना कार्य करनेका इसको हर्ष बहुत है, इसलिये अन्तरंग प्रतीतिसे उसका साधन करता
है। इसप्रकार साधन करते हुए जब तक (१) सच्चा तत्त्वश्रद्धान न हो, (२) ‘यह इसीप्रकार
है’ — ऐसी प्रतीति सहित जीवादितत्त्वोंका स्वरूप आपको भासित न हो, (३) जैसे पर्यायमें अहंबुद्धि
है वैसे केवल आत्मामें अहंबुद्धि न आये, (४) हित-अहितरूप अपने भावोंको न पहिचाने —
तब तक सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि है। यह जीव थोड़े ही कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त होगा;
इसी भवमें या अन्य पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा।
इस भवमें अभ्यास करके परलोकमें तिर्यंचादि गतिमें भी जाये तो वहाँ संस्कारके बलसे
देव-गुरु-शास्त्रके निमित्त बिना भी सम्यक्त्व हो जाये, क्योंकि ऐसे अभ्यासके बलसे
मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग हीन होता है। जहाँ उसका उदय न हो वहीं सम्यक्त्व हो जाता
है।
मूलकारण यही है। देवादिकका तो बाह्य निमित्त है; सो मुख्यतासे तो इनके निमित्तसेही
सम्यक्त्व होता है; तारतम्यसे पूर्व अभ्यास-संस्कारसे वर्तमानमें इनका निमित्त न हो तो भी
सम्यक्त्व हो सकता है। सिद्धान्तमें ‘‘तन्निसर्गादधिगमाद्वा’’ (तत्त्वार्थसूत्र १-३) ऐसा सूत्र है।
इसका अर्थ यह है कि वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अथवा अधिगमसे होता है। वहाँ देवादिक
बाह्यनिमित्तके बिना हो उसे निसर्गसे हुआ कहते हैं; देवादिकके निमित्तसे हो, उसे अधिगमसे
हुआ कहते हैं।
देखो, तत्त्वविचारकी महिमा! तत्त्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करे, बहुत शास्त्रोंका
अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होनेका अधिकार नहीं; और
तत्त्वविचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्वका अधिकारी होता है।
तथा किसी जीवको तत्त्वविचार होनेके पहिले कोई कारण पाकर देवादिककी प्रतीति
हो, व व्रत-तपका अंगीकार हो, पश्चात् तत्त्वविचार करे; परन्तु सम्यक्त्वका अधिकारी
तत्त्वविचार होने पर ही होता है।
तथा किसीको तत्त्वविचार होनेके पश्चात् तत्त्वप्रतीति न होनेसे सम्यक्त्व तो नहीं हुआ
और व्यवहारधर्मकी प्रतीति – रुचि हो गई, इसलिये देवादिककी प्रतीति करता है व व्रत-तपको
अंगीकार करता है। किसीको देवादिककी प्रतीति और सम्यक्त्व युगपत होते हैं तथा व्रत-
तप सम्यक्त्वके साथ भी होते हैं और पहले – पीछे भी होते हैं। देवादिककी प्रतीतिका तो