Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 250 of 350
PDF/HTML Page 278 of 378

 

background image
-
२६० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इस प्रकार जाननेके अर्थ कभी स्वयं ही विचार करता है, कभी शास्त्र पढ़ता है,
कभी सुनता है, कभी अभ्यास करता है, कभी प्रश्नोत्तर करता है,इत्यादिरूप प्रवर्तता है।
अपना कार्य करनेका इसको हर्ष बहुत है, इसलिये अन्तरंग प्रतीतिसे उसका साधन करता
है। इसप्रकार साधन करते हुए जब तक (१) सच्चा तत्त्वश्रद्धान न हो, (२) ‘यह इसीप्रकार
है’
ऐसी प्रतीति सहित जीवादितत्त्वोंका स्वरूप आपको भासित न हो, (३) जैसे पर्यायमें अहंबुद्धि
है वैसे केवल आत्मामें अहंबुद्धि न आये, (४) हित-अहितरूप अपने भावोंको न पहिचाने
तब तक सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि है। यह जीव थोड़े ही कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त होगा;
इसी भवमें या अन्य पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा।
इस भवमें अभ्यास करके परलोकमें तिर्यंचादि गतिमें भी जाये तो वहाँ संस्कारके बलसे
देव-गुरु-शास्त्रके निमित्त बिना भी सम्यक्त्व हो जाये, क्योंकि ऐसे अभ्यासके बलसे
मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग हीन होता है। जहाँ उसका उदय न हो वहीं सम्यक्त्व हो जाता
है।
मूलकारण यही है। देवादिकका तो बाह्य निमित्त है; सो मुख्यतासे तो इनके निमित्तसेही
सम्यक्त्व होता है; तारतम्यसे पूर्व अभ्यास-संस्कारसे वर्तमानमें इनका निमित्त न हो तो भी
सम्यक्त्व हो सकता है। सिद्धान्तमें ‘‘तन्निसर्गादधिगमाद्वा’’ (तत्त्वार्थसूत्र १-३) ऐसा सूत्र है।
इसका अर्थ यह है कि वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अथवा अधिगमसे होता है। वहाँ देवादिक
बाह्यनिमित्तके बिना हो उसे निसर्गसे हुआ कहते हैं; देवादिकके निमित्तसे हो, उसे अधिगमसे
हुआ कहते हैं।
देखो, तत्त्वविचारकी महिमा! तत्त्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करे, बहुत शास्त्रोंका
अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होनेका अधिकार नहीं; और
तत्त्वविचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्वका अधिकारी होता है।
तथा किसी जीवको तत्त्वविचार होनेके पहिले कोई कारण पाकर देवादिककी प्रतीति
हो, व व्रत-तपका अंगीकार हो, पश्चात् तत्त्वविचार करे; परन्तु सम्यक्त्वका अधिकारी
तत्त्वविचार होने पर ही होता है।
तथा किसीको तत्त्वविचार होनेके पश्चात् तत्त्वप्रतीति न होनेसे सम्यक्त्व तो नहीं हुआ
और व्यवहारधर्मकी प्रतीतिरुचि हो गई, इसलिये देवादिककी प्रतीति करता है व व्रत-तपको
अंगीकार करता है। किसीको देवादिककी प्रतीति और सम्यक्त्व युगपत होते हैं तथा व्रत-
तप सम्यक्त्वके साथ भी होते हैं और पहले
पीछे भी होते हैं। देवादिककी प्रतीतिका तो