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२७० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर इस करणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह उसके
विशेषणरूप भासित होता है। जो जीवादिक तत्त्वोंको आप जानते है, उन्हींके विशेष
करणानुयोगमें किये हैं; वहाँ कितने ही विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, कितने ही
उपचारसहित व्यवहाररूप हैं, कितने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल भावादिकके स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं,
कितने ही निमित्त – आश्रयादि अपेक्षा सहित हैं — इत्यादि अनेक प्रकारके विशेषण निरूपित किये
हैं, उन्हें ज्योंका त्यों मानता हुआ उस करणानुयोगका अभ्यास करता है।
इस अभ्याससे तत्त्वज्ञान निर्मल होता है। जैसे – कोई यह तो जानता था कि यह
रत्न है, परन्तु उस रत्नके बहुतसे विशेष जानने पर निर्मल रत्नका पारखी होता है; उसीप्रकार
तत्त्वोंको जानता था कि यह जीवादिक हैं, परन्तु उन तत्त्वोंके बहुत विशेष जाने तो निर्मल
तत्त्वज्ञान होता है। तत्त्वज्ञान निर्मल होने पर आप ही विशेष धर्मात्मा होता है।
तथा अन्य ठिकाने उपयोगको लगाये तो रागादिककी वृद्धि होती है और छद्मस्थका
उपयोग निरन्तर एकाग्र नहीं रहता; इसलिये ज्ञानी इस करणानुयोगके अभ्यासमें उपयोगको
लगाता है, उससे केवलज्ञान द्वारा देखे गये पदार्थोंका जानपना इसके होता है; प्रत्यक्ष-
अप्रत्यक्षका ही भेद है, भासित होनेमें विरुद्धता नहीं है।
इसप्रकार यह करणानुयोगका प्रयोजन जानना।
‘करण’ अर्थात् गणित-कार्यके कारणरूप सूत्र, उनका जिसमें ‘अनुयोग’ – अधिकार हो
वह करणानुयोग है। इसमें गणित वर्णनकी मुख्यता है – ऐसा जानना।
चरणानुयोगका प्रयोजन
अब चरणानुयोगका प्रयोजन कहते हैं। चरणानुयोगमें नानाप्रकार धर्मके साधन निरूपित
करके जीवोंको धर्ममें लगाते हैं। जो जीव हित-अहितको नहीं जानते, हिंसादिक पापकार्योंमें
तत्पर हो रहते हैं; उन्हें जिस प्रकार पापकार्योंको छोड़कर धर्मकार्योंमें लगें, उस प्रकार उपदेश
दिया है; उसे जानकर जो धर्म-आचरण करनेको सन्मुख हुए, वे जीव गृहस्थधर्म व मुनिधर्मका
विधान सुनकर आपसे जैसा सधे वैसे धर्म-साधनमें लगते हैं।
ऐसे साधनसे कषाय मन्द होती है और उसके फलमें इतना तो होता है कि कुगतिमें
दुःख नहीं पाते, किन्तु सुगतिमें सुख प्राप्त करते हैं; तथा ऐसे साधनसे जिनमतका निमित्त
बना रहता है, वहाँ तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होना हो तो हो जाती है।
तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर चरणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह सर्व आचरण