Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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आठवाँ अधिकार ][ २६९
प्रगट करते हैं; इसलिये वे जीव कथाओंके लालचसे तो उन्हें पढ़ते-सुनते हैं और फि र पापको
बुरा, धर्मको भला जानकर धर्ममें रुचिवंत होते हैं।
इसप्रकार तुच्छबुद्धियोंको समझानेके लिये यह अनुयोग है। ‘प्रथम’ अर्थात् ‘अव्युत्पन्न
मिथ्यादृष्टि’, उनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है। ऐसा अर्थ गोम्मटसारकी टीकामें
किया है।
तथा जिन जीवोंके तत्त्वज्ञान हुआ हो, पश्चात् इस प्रथमानुयोगको पढ़ेसुनें तो उन्हें
यह उसके उदाहरणरूप भासित होता है। जैसेजीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ
हैं, ऐसा यह जानता था। तथा पुराणोंमें जीवोंके भवान्तर निरूपण किये हैं, वे उस जाननेके
उदाहरण हुए। तथा शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोगको जानता था, व उसके फलको जानता था।
पुराणोंमें उन उपयोगोंकी प्रवृत्ति और उनका फल जीवके हुआ सो निरूपण किया है। वही
उस जाननेका उदाहरण हुआ। इसीप्रकार अन्य जानना।
यहाँ उदाहरणका अर्थ यह है कि जिस प्रकार जानता था, उसीप्रकार वहाँ किसी
जीवके अवस्था हुई;-इसलिये यह उस जाननेकी साक्षी हुई।
तथा जैसे कोई सुभट हैवह सुभटोंकी प्रशंसा और कायरोंकी निन्दा जिसमें हो, ऐसी
किन्हीं पुराण-पुरुषोंकी कथा सुननेसे सुभटपनेमें अति उत्साहवान होता है; उसीप्रकार धर्मात्मा
है
वह धर्मात्माओंकी प्रशंसा और पापियोंकी निन्दा जिसमें हो, ऐसे किन्हीं पुराण-पुरुषोंकी कथा
सुननेसे धर्ममें अति उत्साहवान होता है।
इसप्रकार यह प्रथमानुयोगका प्रयोजन जानना।
करणानुयोगका प्रयोजन
तथा करणानुयोगमें जीवोंके व कर्मोंके विशेष तथा त्रिलोकादिककी रचना निरूपित करके
जीवोंको धर्ममें लगाया है। जो जीव धर्ममें उपयोग लगाना चाहते हैं वे जीवोंके गुणस्थान-
मार्गणा आदि विशेष तथा कर्मोंके कारण
अवस्थाफल किस-किसके कैसे-कैसे पाये जाते हैं
इत्यादि विशेष तथा त्रिलोकमें नरक-स्वर्गादिके ठिकाने पहिचानकर पापसे विमुख होकर धर्ममें
लगते हैं। तथा ऐसे विचारमें उपयोग रम जाये तब पाप-प्रवृत्ति छूटकर स्वयमेव तत्काल धर्म
उत्पन्न होता है; उस अभ्याससे तत्त्वज्ञानकी भी प्राप्ति शीघ्र होती है। तथा ऐसा सूक्ष्म यथार्थ
कथन जिनमतमें ही है, अन्यत्र नहीं है; इसप्रकार महिमा जानकर जिनमतका श्रद्धानी होता है।
१. प्रथमं मिथ्यादृष्टिमव्रतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोगः।
(जी० प्र० टी० गा० ३६१-६२)