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२६८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
आठवाँ अधिकार
उपदेशका स्वरूप
अब मिथ्यादृष्टि जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देकर उनका उपकार करना यही उत्तम
उपकार है। तीर्थंकर, गणधरादिक भी ऐसा ही उपकार करते हैं; इसलिये इस शास्त्रमें भी
उन्हींके उपदेशानुसार उपदेश देते हैं।
वहाँ उपदेशका स्वरूप जाननेके अर्थ कुछ व्याख्यान करते हैं; क्योंकि उपदेशको यथावत्
न पहिचाने तो अन्यथा मानकर विपरीत प्रवर्तन करे। इसलिये उपदेशका स्वरूप कहते हैं।
जिनमतमें उपदेश चार अनुयोगके द्वारा दिया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग,
चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग – यह चार अनुयोग हैं।
वहाँ तीर्थंकर – चक्रवर्ती आदि महान पुरुषोंके चारित्रका जिसमें निरूपण किया हो वह
प्रथमानुयोग१है। तथा गुणस्थान – मार्गणादिरूप जीवका व कर्मोंका व त्रिलोकादिकका जिसमें
निरूपण हो वह करणानुयोग२ है। तथा गृहस्थ-मुनिके धर्म-आचरण करनेका जिसमें निरूपण
हो वह चरणानुयोग३ है। तथा षट्द्रव्य, सप्ततत्त्वादिकका व स्व-परभेद-विज्ञानादिकका जिसमें
निरूपण हो वह द्रव्यानुयोग४ है।
अनुयोगोंका प्रयोजन
अब इनका प्रयोजन कहते हैंः –
प्रथमानुयोगका प्रयोजन
प्रथमानुयोगमें तो संसारकी विचित्रता, पुण्य-पापका फल, महन्त पुरुषोंकी प्रवृत्ति इत्यादि
निरूपणसे जीवोंको धर्ममें लगाया है। जो जीव तुच्छबुद्धि हों वे भी उससे धर्मसन्मुख होते
हैं; क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपणको नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओंको जानते हैं, वहाँ
उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोगमें लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होनेसे उसे वे भली-
भाँति समझ जाते हैं। तथा लोकमें तो राजादिककी कथाओंमें पापका पोषण होता है। यहाँ
महन्तपुरुष राजादिककी कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँ-तहाँ पापको छुड़ाकर धर्ममें लगानेका
१. रत्नकरण्ड २-२; २. रत्नकरण्ड २-३; ३. रत्नकरण्ड २-४; ४. रत्नकरण्ड २-५.