Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २६७
प्रकृत्तियोंका तो बन्ध ही मिट जाता है, स्थिति अंतःकोड़ाकोड़ी सागरकी रह जाती है, अनुभाग
थोड़ा ही रह जाता है, शीघ्र ही मोक्षपदको प्राप्त करता है। तथा मिथ्यात्वका सद्भाव रहने
पर अन्य अनेक उपाय करने पर भी मोक्षमार्ग नहीं होता। इसलिये जिस-तिस उपायसे
सर्वप्रकार मिथ्यात्वका नाश करना योग्य है।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें जैनमतवाले मिथ्यादृष्टियोंका
निरूपण जिसमें हुआ ऐसा (सातवाँ) अधिकार
सम्पूर्ण हुआ।।।।
१ प्रकृतियोंके नाम
मिथ्यात्व सम्बन्धी १६ः
मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, जाति
४ (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण।
अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी २५ः
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय,
अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, संस्थान ४ (न्यग्रोध,
स्वाति, कुब्जक, वामन), संहनन ४ (वज्रनाराच, नाराच अर्धनाराच और कीलित)।