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२६६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अनादि मिथ्यादृष्टिकी दशा होती है वैसी इसकी भी दशा होती है। गृहीत-मिथ्यात्वको भी
वह ग्रहण करता है और निगोदादिमें भी रुलता है। इसका कोई प्रमाण नहीं है।
तथा कोई जीव सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर सासादन होता है और वहाँ जघन्य एक समय
उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल रहता है। उसके परिणामकी दशा वचन द्वारा कहनेमें नहीं
आती। सूक्ष्मकाल मात्र किसी जातिके केवलज्ञानगम्य परिणाम होते हैं। वहाँ अनन्तानुबन्धीका
तो उदय होता है, मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। सो आगम-प्रमाणसे उसका स्वरूप जानना।
तथा कोई जीव सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होता है। वहाँ
मिश्रमोहनीयका उदय होता है, इसका काल मध्यम अन्तर्मुहूर्तमात्र है। सो इसका भी काल
थोड़ा है, इसलिये इसके भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं। यहाँ इतना भासित होता है कि
जैसे किसीको शिक्षा दी; उसे वह कुछ सत्य और कुछ असत्य एक ही कालमें माने; उसीप्रकार
तत्त्वोंका श्रद्धान-अश्रद्धान एक ही कालमें हो वह मिश्रदशा है।
कितने ही कहते हैं — ‘हमें तो जिनदेव तथा अन्य देव सर्व ही वन्दन करने योग्य
हैं’ — इत्यादि मिश्रश्रद्धानको मिश्रगुणस्थान कहते हैं, सो ऐसा नहीं है; यह तो प्रत्यक्ष
मिथ्यात्वदशा है। व्यवहाररूप देवादिकका श्रद्धान होने पर भी मिथ्यात्व रहता है, तब इसके
तो देव-कुदेवका कुछ निर्णय ही नहीं है; इसलिये इसके तो यह विनय मिथ्यात्व प्रगट है —
ऐसा जानना।
इसप्रकार सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया, प्रसंग पाकर अन्य भी कथन
किया है।
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इसप्रकार जैनमतवाले मिथ्यादृष्टियोंके स्वरूपका निरूपण किया।
यहाँ छोटेप्रकारके मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया है। उसका प्रयोजन यह जानना कि
उन प्रकारोंको पहिचानकर अपनेमें ऐसा दोष हो तो उसे दूर करके सम्यक्श्रद्धानी होना औरोंके
ही ऐसे दोष देख-देखकर कषायी नहीं होना; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामोंसे
है। औरोंको तो रुचिवान देखें तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करें। इसलिये अपने
परिणाम सुधारनेका उपाय करना योग्य है; सर्व प्रकारके मिथ्यात्वभाव छोड़कर सम्यग्दृष्टि होना
योग्य है; क्योंकि संसारका मूल मिथ्यात्व है, मिथ्यात्वके समान अन्य पाप नहीं है।
एक मिथ्यात्व और उसके साथ अनन्तानुबन्धीका अभाव होने पर इकतालीस