Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २६५
होता है। उसीप्रकार जीवको जिनदेवका तत्त्वादिरूप उपदेश हुआ; उसकी परीक्षा करके उसे
‘ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान हुआ, पश्चात् जैसे पहले कहे थे वैसे अनेक प्रकारसे उस यथार्थ
श्रद्धानका अभाव होता है। यह कथन स्थूलरूपसे बतलाया है; तारतम्यसे तो केवलज्ञानमें
भासित होता है कि
‘इस समय श्रद्धान है और इस समय नहीं है;’ क्योंकि यहाँ मूलकारण
मिथ्यात्वकर्म है। उसका उदय हो तब तो अन्य विचारादि कारण मिलें या न मिलें, स्वयमेव
सम्यक् श्रद्धानका अभाव होता है। और उसका उदय न हो तब अन्य कारण मिलें या
न मिलें, स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान हो जाता है। सो ऐसी अन्तरंग समय-समय सम्बन्धी
सूक्ष्मदशाका जानना छद्मस्थको नहीं होता, इसलिये इसे अपनी मिथ्या-सम्यक् श्रद्धानरूप
अवस्थाके तारतम्यका निश्चय नहीं हो सकता; केवलज्ञानमें भासित होता है।
इस अपेक्षा
गुणस्थानोंका पलटना शास्त्रमें कहा है।
इसप्रकार जो सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो उसे सादि मिथ्यादृष्टि कहते हैंउसके भी पुनः
सम्यक्त्वकी प्राप्तिमें पूर्वोक्त पाँच लब्धियाँ होती हैं। विशेष इतना कि यहाँ किसी जीवके
दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, सो तीनोंका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वी
होता है। अथवा किसीके सम्यक्त्व मोहनीयका उदय आता है, दो प्रकृतियोंका उदय नहीं
होता, वह क्षयोपशम सम्यक्त्वी होता है; उसके गुणश्रेणी आदि क्रिया नहीं होती तथा
अनिवृत्तिकरण नहीं होता। तथा किसीको मिश्रमोहनीयका उदय आता है, दो प्रकृतियोंका
उदय नहीं होता, वह मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके करण नहीं होते।
इसप्रकार
सादि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व छूटने पर दशा होती है। क्षायिक सम्यक्त्वको वेदक सम्यग्दृष्टि
ही प्राप्त करता है, इसलिये उसका कथन यहाँ नहीं किया है। इसप्रकार सादि मिथ्यादृष्टिका
जघन्य तो मध्यम अन्तर्मुहूर्तमात्र, उत्कृष्ट किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गलपरावर्तनमात्र काल जानना।
देखो, परिणामोंकी विचित्रता! कोई जीव तो ग्यारहवें गुणस्थानमें यथाख्यातचारित्र प्राप्त
करके पुनः मिथ्यादृष्टि होकर किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल पर्यन्त संसारमें रुलता
है और कोई नित्य निगोदसे निकलकर मनुष्य होकर मिथ्यात्व छूटनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें
केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा जानकर अपने परिणाम बिगाड़नेका भय रखना और उनके
सुधारनेका उपाय करना।
तथा उस सादि मिथ्यादृष्टिके थोड़े काल मिथ्यात्वका उदय रहे तो बाह्य जैनीपना नष्ट
नहीं होता, व तत्त्वोंका अश्रद्धान व्यक्त नहीं होता, व विचार किये बिना ही व थोड़े विचारसे
ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। तथा बहुत काल तक मिथ्यात्वका उदय रहे तो जैसी