Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२७६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा करणानुयोगमें छद्मस्थोंकी प्रवृत्तिके अनुसार वर्णन नहीं किया है, केवल- ज्ञानगम्य
पदार्थोंका निरूपण है। जिस प्रकार कितने ही जीव तो द्रव्यादिकका विचार करते हैं व
व्रतादिक पालते हैं; परन्तु उनके अन्तरंग सम्यक्त्वचारित्र शक्ति नहीं है, इसलिये उनको
मिथ्यादृष्टि
अव्रती कहते हैं। तथा कितने ही जीव द्रव्यादिकके व व्रतादिकके विचार रहित
हैं, अन्य कार्योंमें प्रवर्तते हैं, व निद्रादि द्वारा निर्विचार हो रहे हैं; परन्तु उनके सम्यक्त्वादि
शक्तिका सद्भाव है, इसलिये उनको सम्यक्त्वी व व्रती कहते हैं।
तथा किसी जीवके कषायोंकी प्रवृत्ति तो बहुत है और उसके अंतरंग कषायशक्ति थोड़ी
है, तो उसे मन्दकषायी कहते हैं। तथा किसी जीवके कषायोंकी प्रवृत्ति तो थोड़ी है और उनके
अंतरंग कषायशक्ति बहुत है, तो उसे तीव्रकषायी कहते हैं। जैसे
व्यंतरादिक देव कषायोंसे
नगर नाशादि कार्य करते हैं, तथापि उनके थोड़ी कषायशक्तिसे पीत लेश्या कही है। और
एकेन्द्रियादिक जीव कषायकार्य करते दिखाई नहीं देते, तथापि उनके बहुत कषायशक्तिसे कृष्णादि
लेश्या कही है। तथा सर्वार्थसिद्धिके देव कषायरूप थोड़े प्रवर्तते हैं, उनके बहुत कषायशक्तिसे
असंयम कहा है। और पंचम गुणस्थानी व्यापार, अब्रह्मादि कषायकार्यरूप बहुत प्रवर्तते हैं;
उनके मन्दकषायशक्तिसे देशसंयम कहा है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
तथा किसी जीवके मन-वचन-कायकी चेष्टा थोड़ी होती दिखाई दे, तथापि कर्माकर्षण
शक्तिकी अपेक्षा बहुत योग कहा है। किसीके चेष्टा बहुत दिखाई दे, तथापि शक्तिकी हीनतासे
अल्प योग कहा है। जैसे
केवली गमनादि क्रियारहित हुए, वहाँ भी उनके योग बहुत कहा
है। द्वीन्द्रियादिक जीव गमनादि करते हैं, तथापि उनके योग अल्प कहा है। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।
तथा कहीं जिसकी व्यक्तता कुछ भासित नहीं होती, तथापि सूक्ष्मशक्तिके सद्भावसे
उसका वहाँ अस्तित्व कहा है। जैसेमुनिके अब्रह्म कार्य कुछ नहीं है, तथापि नववें
गुणस्थानपर्यन्त मैथुन संज्ञा कही है। अहमिन्द्रोंके दुःखका कारण व्यक्त नहीं है, तथापि कदाचित्
असाताका उदय कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा करणानुयोग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिक धर्मका निरूपण कर्मप्रकृतियोंके
उपशमादिककी अपेक्षासहित, सूक्ष्मशक्ति जैसे पायी जाती है वैसे गुणस्थानादिमें निरूपण करता
है व सम्यग्दर्शनादिके विषयभूत जीवादिकोंका भी निरूपण सूक्ष्मभेदादि सहित करता है। यहाँ
कोई करणानुयोग अनुसार आप उद्यम करे तो हो नहीं सकता; करणानुयोगमें तो यथार्थ पदार्थ
बतलानेका मुख्य प्रयोजन है, आचरण करानेकी मुख्यता नहीं है। इसलिये यह तो