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आठवाँ अधिकार ][ २७७
चरणानुयोगादिकके अनुसार प्रवर्तन करे, उससे जो कार्य होना है वह स्वयमेव ही होता है।
जैसे – आप कर्मोके उपशमादि करना चाहे तो कैसे होंगे? आप तो तत्त्वादिकका निश्चय करनेका
उद्यम करे, उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
एक अन्तर्मुहूर्तमें ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरकर क्रमशः मिथ्यादृष्टि होता है और चढ़कर
केवलज्ञान उत्पन्न करता है। सो ऐसे सम्यक्त्वादिके सूक्ष्मभाव बुद्धिगोचर नहीं होते। इसलिये
करणानुयोगके अनुसार जैसेका तैसा जान तो ले, परन्तु प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला हो वैसी करे।
तथा करणानुयोगमें कहीं उपदेशकी मुख्यता सहित व्याख्यान होता है, उसे सर्वथा उसी
प्रकार नहीं मानना। जैसे – हिंसादिकके उपायको कुमतिज्ञान कहा है; अन्य मतादिकके
शास्त्राभ्यासको कुश्रुतज्ञान कहा है; बुरा दिखे, भला न दिखे, उसे विभंगज्ञान कहा है; सो इनको
छोड़नेके अर्थ उपदेश द्वारा ऐसा कहा है। तारतम्यसे मिथ्यादृष्टिके सभी ज्ञान कुज्ञान हैं,
सम्यग्दृष्टिके सभी ज्ञान सुज्ञान हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा कहीं स्थूल कथन किया हो उसे तारतम्यरूप नहीं जानना। जिस प्रकार व्याससे
तीनगुनी परिधि कही जाती है, परन्तु सूक्ष्मतासे कुछ अधिक तीनगुनी होती है। इसीप्रकार अन्यत्र
जानना।
तथा कहीं मुख्यताकी अपेक्षा व्याख्यान हो उसे सर्वप्रकार नहीं जानना। जैसे – मिथ्यादृष्टि
और सासादन गुणस्थानवालोंको पापजीव कहा है, असंयतादि गुणस्थानवालोंको पुण्यजीव कहा
है, सो मुख्यपनेसे ऐसा कहा है; तारतम्यसे दोनोंके पाप-पुण्य यथासम्भव पाये जाते हैं।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
ऐसे ही और भी नानाप्रकार पाये जाते हैं, उन्हें यथासम्भव जानना।
इस प्रकार करणानुयोगमें व्याख्यानका विधान बतलाया।
चरणानुयोगके व्याख्यानका विधान
अब, चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान बतलाते हैंः –
चरणानुयोगमें जिसप्रकार जीवोंके अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण हो वैसा उपदेश
दिया है। वहाँ धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है वही है, उसके साधनादिक उपचारसे धर्म
हैं। इसलिये व्यवहारनयकी प्रधानतासे नानाप्रकार उपचार-धर्मके भेदादिकोंका इसमें निरूपण
किया जाता है; क्योंकि निश्चयधर्ममें तो कुछ ग्रहण-त्यागका विकल्प नहीं है और इसके निचली
अवस्थामें विकल्प छूटता नहीं है; इसलिये इस जीवको धर्मविरोधी कार्योंको छुडा़नेका और
धर्मसाधनादि कार्योको ग्रहण करानेका उपदेश इसमें है।