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२७८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
वह उपदेश दो प्रकारसे दिया जाता है – एक तो व्यवहारका ही उपदेश देते हैं, एक
निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश देते हैं।
वहाँ जिन जीवोंके निश्चयका ज्ञान नहीं है व उपदेश देने पर भी नहीं होता दिखाई
देता ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव कुछ धर्मसन्मुख होने पर उन्हें व्यवहारका ही उपदेश देते हैं।
तथा जिन जीवोंको निश्चय – व्यवहारका ज्ञान है व उपदेश देने पर उनका ज्ञान होता दिखाई
देता है – ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव व सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव उनको निश्चयसहित व्यवहारका
उपदेश देते हैं; क्योंकि श्रीगुरु सर्व जीवोंके उपकारी हैं।
सो असंज्ञी जीव तो उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, उनका तो उपकार इतना
ही किया कि और जीवोंको उनकी दयाका उपदेश दिया।
तथा जो जीव कर्मप्रबलतासे निश्चयमोक्षमार्गको प्राप्त नहीं हो सकते, उनका इतना ही
उपकार किया कि उन्हें व्यवहारधर्मका उपदेश देकर कुगतिके दुःखोंके कारण पापकार्य छुड़ाकर
सुगतिके इन्द्रियसुखोंके कारणरूप पुण्यकार्योंमें लगाया। वहाँ जितने दुःख मिटे उतना ही उपकार
हुआ।
तथा पापीको तो पापवासना ही रहती है और कुगतिमें जाता है, वहाँ धर्मका निमित्त
नहीं है, इसलिये परम्परासे दुःख ही प्राप्त करता रहता है। तथा पुण्यवानको धर्मवासना रहती
है और सुगतिमें जाता है, वहाँ धर्मके निमित्त प्राप्त होते हैं, इसलिये परम्परासे सुखको प्राप्त
करता है; अथवा कर्म शक्तिहीन हो जाये तो मोक्षमार्गको भी प्राप्त हो जाता है; इसलिये
व्यवहार-उपदेश द्वारा पापसे छुड़ाकर पुण्यकार्योंमें लगाते हैं।
तथा जो जीव मोक्षमार्गको प्राप्त हुए व प्राप्त होने योग्य हैं; उनका ऐसा उपकार
किया कि उनको निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश देकर मोक्षमार्गमें प्रवर्तित किया।
श्रीगुरु तो सर्वका ऐसा ही उपकार करते हैं; परन्तु जिन जीवोंका ऐसा उपकार न
बने तो श्रीगुरु क्या करें? – जैसा बना वैसा ही उपकार किया; इसलिये दो प्रकारसे उपदेश
देते हैं।
वहाँ व्यवहार-उपदेशमें तो बाह्य क्रियाओंकी ही प्रधानता है; उनके उपदेशसे जीव
पापक्रिया छोड़कर पुण्यक्रियाओंमें प्रवर्तता है, वहाँ क्रियाके अनुसार परिणाम भी तीव्रकषाय
छोड़कर कुछ मन्दकषायी हो जाते हैं, सो मुख्यरूपसे तो इस प्रकार है; परन्तु किसीके न
हों तो मत होओ, श्रीगुरु तो परिणाम सुधारनेके अर्थ बाह्य क्रियाओंका उपदेश देते हैं।