तथा चरणानुयोगमें तीव्र कषायोंका कार्य छुड़ाकर मंदकषायरूप कार्य करनेका उपदेश
घटें उतना ही भला होगा
होती न जाने, उन्हें पूजा-प्रभावनादिक करनेका व चैत्यालयादि बनवानेका व जिनदेवादिकके
आगे शोभादिक, नृत्य-गानादिक करनेका व धर्मात्मा पुरुषोंकी सहाय आदि करनेका उपदेश
देते हैं; क्योंकि इनमें परम्परा कषायका पोषण नहीं होता। पापकार्योंमें परम्परा कषायका
पोषण होता है, इसलिये पापकार्योंसे छुड़ाकर इन कार्योंमें लगाते हैं। तथा थोड़ा-बहुत जितना
छूटता जाने उतना पापकार्य छुड़ाकर उन्हें सम्यक्त्व व अणुव्रतादि पालनेका उपदेश देते हैं।
तथा जिन जीवोंके सर्वथा आरम्भादिककी इच्छा दूर हुई है, उनको पूर्वोक्त पूजादिक कार्य
व सर्व पापकार्य छुड़ाकर महाव्रतादि क्रियाओंका उपदेश देते हैं। तथा किंचित् रागादिक छूटते
जानकर उन्हें दया, धर्मोपदेश, प्रतिक्रमणादि कार्य करनेका उपदेश देते हैं। जहाँ सर्व राग
दूर हुआ हो वहाँ कुछ करनेका कार्य ही नहीं रहा; इसलिये उन्हें कुछ उपदेश ही नहीं है।
उत्पन्न करके धर्मकार्योंमें लगाते हैं। तथा यह जीव इन्द्रियविषय, शरीर, पुत्र, धनादिकके
अनुरागसे पाप करता है, धर्म-पराङ्मुख रहता है; इसलिये इन्द्रियविषयोंको मरण, क्लेशादिके
कारण बतलाकर उनमें अरति कषाय कराते हैं। शरीरादिको अशुचि बतलाकर वहाँ जुगुप्सा
कषाय कराते हैं; पुत्रादिकको धनादिकके ग्राहक बतलाकर वहाँ द्वेष कराते हैं; तथा धनादिकको
मरण, क्लेशादिकका कारण बतलाकर वहाँ अनिष्टबुद्धि कराते हैं।
स्तुतिकरण, पूजा, दान, शीलादिकसे इस लोकमें दारिद्रय कष्ट दूर होते हैं, पुत्र-धनादिककी
प्राप्ति होती है,
यहाँ प्रश्न है कि कोई कषाय छुड़ाकर कोई कषाय करानेका प्रयोजन क्या?