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२८६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रवर्ते उस काल उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं। यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मरागादिक हैं,
तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की; अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है, इस अपेक्षा
उसे शुद्धोपयोगी कहा है।
इसीप्रकार स्व-पर श्रद्धानादिक होने पर सम्यक्त्वादि कहे, वह बुद्धिगोचर अपेक्षासे
निरूपण है; सूक्ष्म भावोंकी अपेक्षा गुणस्थानादिकमें सम्यक्त्वादिका निरूपण करणानुयोगमें पाया
जाता है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
इसलिये द्रव्यानुयोगके कथनकी विधि करणानुयोगसे मिलाना चाहे तो कहीं तो मिलती
है, कहीं नहीं मिलती। जिसप्रकार यथाख्यातचारित्र होने पर तो दोनों अपेक्षा शुद्धोपयोग है,
परन्तु निचली दशामें द्रव्यानुयोग अपेक्षासे तो कदाचित् शुद्धोपयोग होता है, परन्तु करणानुयोग
अपेक्षा सदाकाल कषाय-अंशके सद्भावसे शुद्धोपयोग नहीं है। इसीप्रकार अन्य कथन जान लेना।
तथा द्रव्यानुयोगमें परमतमें कहे हुए तत्त्वादिकको असत्य बतलानेके अर्थ उनका
निषेध करते हैं; वहाँ द्वेषबुद्धि नहीं जानना। उनको असत्य बतलाकर सत्यश्रद्धान करानेका
प्रयोजन जानना।
इसी प्रकार और भी अनेक प्रकारसे द्रव्यानुयोगमें व्याख्यानका विधान है।
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इसप्रकार चारों अनुयोगके व्याख्यानका विधान कहा। वहाँ किसी ग्रन्थमें एक
अनुयोगकी, किसीमें दोकी, किसीमें तीनकी और किसीमें चारोंकी प्रधानता सहित व्याख्यान
होता है; सो जहाँ जैसा सम्भव हो वैसा समझ लेना।
अनुयोगोंके व्याख्यानकी पद्धति
अब, इन अनुयोगोंमें कैसी पद्धतिकी मुख्यता पायी जाती है, सो कहते हैंः –
प्रथमानुयोगमें तो अलंकार शास्त्रकी व काव्यादि शास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि
अलंकारादिसे मन रंजायमान होता है, सीधी बात कहनेसे ऐसा उपयोग नहीं लगता – जैसा
अलंकारादि युक्तिसहित कथनसे उपयोग लगता है। तथा परोक्ष बातको कुछ अधिकतापूर्वक
निरूपण किया जाये तो उसका स्वरूप भली-भाँति भासित होता है।
तथा करणानुयोगमें गणित आदि शास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि वहाँ द्रव्य-क्षेत्र-
काल-भावके प्रमाणादिकका निरूपण करते हैं; सो गणित-ग्रन्थोंकी आम्नायसे उसका सुगम
जानपना होता है।