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आठवाँ अधिकार ][ २८७
तथा चरणानुयोगमें सुभाषित नीतिशास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि वहाँ आचरण
कराना है; इसलिये लोकप्रवृत्तिके अनुसार नीतिमार्ग बतलाने पर वह आचरण करता है।
तथा द्रव्यानुयोगमें न्यायशास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि वहाँ निर्णय करनेका प्रयोजन
है और न्यायशास्त्रोंमें निर्णय करनेका मार्ग दिखाया है।
इस प्रकार इन अनुयोगोंमें मुख्य पद्धति है और भी अनेक पद्धतिसहित व्याख्यान
इनमें पाये जाते हैं।
यहाँ कोई कहे – अलंकार, गणित, नीति, न्यायका ज्ञान तो पण्डितोंके होता है;
तुच्छबुद्धि समझे नहीं, इसलिये सीधा कथन क्यों नहीं किया?
उत्तरः — शास्त्र हैं सो मुख्यरूपसे पण्डितों और चतुरोंके अभ्यास करने योग्य हैं, यदि
अलंकारादि आम्नाय सहित कथन हो तो उनका मन लगे। तथा जो तुच्छबुद्धि हैं उनको
पण्डित समझा दें और जो नहीं समझ सकें तो उन्हें मुँहसे सीधा ही कथन कहें। परन्तु
ग्रन्थोंमें सीधा लिखनेसे विशेषबुद्धि जीव अभ्यासमें विशेष नहीं प्रवर्तते, इसलिये अलंकारादि
आम्नाय सहित कथन करते हैं।
इसप्रकार इन चार अनुयोगोंका निरूपण किया।
तथा जैनमतमें बहुत शास्त्र तो चारों अनुयोगोंमें गर्भित हैं।
तथा व्याकरण, न्याय, छन्द, कोषादिक शास्त्र व वैद्यक, ज्योतिष, मन्त्रादि शास्त्र भी
जिनमतमें पाये जाते हैं। उनका क्या प्रयोजन है सो सुनोः —
व्याकरण-न्यायादि शास्त्रोंका प्रयोजन
व्याकरण-न्यायादिकका अभ्यास होने पर अनुयोगरूप शास्त्रोंका अभ्यास हो सकता है;
इसलिये व्याकरणादि शास्त्र कहे हैं।
कोई कहे – भाषारूप सीधा निरूपण करते तो व्याकरणादिका क्या प्रयोजन था?
उत्तरः — भाषा तो अपभ्रंशरूप अशुद्धवाणी है, देश-देशमें और-और हैं; वहाँ महन्त
पुरुष शास्त्रोंमें ऐसी रचना कैसे करें? तथा व्याकरण-न्यायादिक द्वारा जैसे यथार्थ सूक्ष्म अर्थका
निरूपण होता है वैसा सीधी भाषामें नहीं हो सकता; इसलिये व्याकरणादिकी आम्नायसे वर्णन
किया है। सो अपनी बुद्धिके अनुसार थोड़ा-बहुत इनका अभ्यास करके अनुयोगरूप प्रयोजनभूत
शास्त्रोंका अभ्यास करना।
तथा वैद्यकादि चमत्कारसे जिनमतकी प्रभावना हो व औषधादिकसे उपकार भी बने;