Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२८८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अथवा जो जीव लौकिक कार्योंमें अनुरक्त हैं वै वैद्यकादि चमत्कारसे जैनी होकर पश्चात् सच्चा
धर्म प्राप्त करके अपना कल्याण करें
इत्यादि प्रयोजन सहित वैद्यकादि शास्त्र कहे हैं।
यहाँ इतना है कि ये भी जैनशास्त्र हैं ऐसा जानकर इनके अभ्यासमें बहुत नहीं
लगना। यदि बहुत बुद्धिसे इनका सहज जानना हो और इनको जाननेसे अपने रागादिक
विकार बढ़ते न जाने, तो इनका भी जानना होओ। अनुयोगशास्त्रवत् ये शास्त्र बहुत कार्यकारी
नहीं हैं, इसलिये इनके अभ्यासका विशेष उद्यम करना योग्य नहीं है।
प्रश्नःयदि ऐसा है तो गणधरादिकने इनकी रचना किसलिये की?
उत्तरःपूर्वोक्त किंचित् प्रयोजन जानकर इनकी रचना की है। जैसेबहुत धनवान
कदाचित् अल्पकार्यकारी वस्तुका भी संचय करता है; परन्तु थोड़े धनवाला उन वस्तुओंका
संचय करे तो धन तो वहाँ लग जाये, फि र बहुत कार्यकारी वस्तुका संग्रह काहेसे करे?
उसी प्रकार बहुत बुद्धिमान गणधरादिक कथंचित् अल्पकार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रोंका भी संचय
करते हैं; परन्तु थोड़ा बुद्धिमान उनके अभ्यासमें लगे तो बुद्धि तो वहाँ लग जाये, फि र
उत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रोंका अभ्यास कैसे करे?
तथा जैसेमंदरागी तो पुराणादिमें श्रृंगारादिकका निरूपण करे तथापि विकारी नहीं
होता; परन्तु तीव्र रागी वैसे श्रृंगारादिका निरूपण करे तो पाप ही बाँधेगा। उसी प्रकार
मंदरागी गणधरादिक हैं वे वैद्यकादि शास्त्रोंका निरूपण करें तथापि विकारी नहीं होते; परन्तु
तीव्र रागी उनके अभ्यासमें लग जायें तो रागादिक बढ़ाकर पापकर्मको बाँधेगें
ऐसा जानना।
इसप्रकार जैनमतके उपदेशका स्वरूप जानना।
अनुयोगोंमें दोष-कल्पनाओंका निराकरण
अब इनमें कोई दोष-कल्पना करता है, उसका निराकरण करते हैंः
प्रथमानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
कितने ही जीव कहते हैंप्रथमानुयोगमें श्रृंगारादिक व संग्रामादिकका बहुत कथन
करते हैं, उनके निमित्तसे रागादिक बढ़ जाते हैं, इसलिये ऐसा कथन नहीं करना था, व
ऐसा कथन सुनना नहीं।
उनसे कहते हैंकथा कहना हो तब तो सभी अवस्थाओंका कथन करना चाहिये;
तथा यदि अलंकारादि द्वारा बढ़ाकर कथन करते हैं, सो पण्डितोंके वचन तो युक्तिसहित ही
निकलते हैं।