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आठवाँ अधिकार ][ २८९
और यदि तुम कहोगे कि सम्बन्ध मिलानेको कथन किया होता, बढ़ाकर कथन किसलिये
किया?
उसका उत्तर यह है कि परोक्ष कथनको बढ़ाकर कहे बिना उसका स्वरूप भासित
नहीं होता। तथा पहले तो भोग-संग्रामादि इस प्रकार किये, पश्चात् सबका त्याग करके मुनि
हुए; इत्यादि चमत्कार तभी भासित होंगे जब बढ़ाकर कथन किया जाये।
तथा तुम कहते हो — उसके निमित्तसे रागादिक बढ़ जाते हैं; सो जैसे कोई चैत्यालय
बनवाये, उसका प्रयोजन तो वहाँ धर्मकार्य करानेका है; और कोई पापी वहाँ पापकार्य करे
तो चैत्यालय बनवानेवालेका तो दोष नहीं है। उसी प्रकार श्रीगुरुने पुराणादिमें श्रृंगारादिका
वर्णन किया; वहाँ उनका प्रयोजन रागादिक करानेका तो है नहीं, धर्ममें लगानेका प्रयोजन
है; परन्तु कोई पापी धर्म न करे और रागादिक ही बढ़ाये तो श्रीगुरुका क्या दोष है?
यदि तू कहे रागादिकका निमित्त हो ऐसा कथन ही नहीं करना था।
उसका उत्तर यह है — सरागी जीवोंका मन केवल वैराग्यकथनमें नहीं लगता। इसलिये
जिसप्रकार बालकको बताशेके आश्रयसे औषधि देते हैं; उसीप्रकार सरागीको भोगादि कथनके
आश्रयसे धर्ममें रुचि कराते हैं।
यदि तू कहेगा — ऐसा है तो विरागी पुरुषोंको तो ऐसे ग्रन्थोंका अभ्यास करना योग्य
नहीं है?
उसका उत्तर यह है — जिनके अन्तरंगमें रागभाव नहीं हैं, उनको श्रृंगारादि कथन सुनने
पर रागादि उत्पन्न ही नहीं होते। वे जानते हैं कि यहाँ इसी प्रकार कथन करनेकी पद्धति है।
फि र तू कहेगा — जिनको श्रृंगारादिका कथन सुनने पर रागादि हो आयें, उन्हें तो
वैसा कथन सुनना योग्य नहीं है?
उसका उत्तर यह है — जहाँ धर्मका ही तो प्रयोजन है और जहाँ-तहाँ धर्मका पोषण
करते हैं — ऐसे जैन पुराणादिकमें प्रसंगवश श्रृंगारादिकका कथन किया है। उसे सुनकर
भी जो बहुत रागी हुआ तो वह अन्यत्र कहाँ विरागी होगा? वह तो पुराण सुनना छोड़कर
अन्य कार्य भी ऐसे ही करेगा जहाँ बहुत रागादि हों; इसलिये उसको भी पुराण सुननेसे
थोड़ी-बहुत धर्मबुद्धि हो तो हो। अन्य कार्योंसे तो यह कार्य भला ही है।
तथा कोई कहे — प्रथमानुयोगमें अन्य जीवोंकी कहानियाँ हैं, उनसे अपना क्या प्रयोजन
सधता है?
उससे कहते हैं — जैसे कामी पुरुषोंकी कथा सुनने पर अपनेको भी कामका प्रेम बढ़ता