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आठवाँ अधिकार ][ २९१
घटने पर ऐसा कार्य होता है। तथा पाषाणादिकमें इस लोकका कोई प्रयोजन भासित हो
जाये तो रागादिक हो आते हैं और द्वीपादिकमें इस लोक सम्बन्धी कार्य कुछ नहीं है, इसलिये
रागादिकका कारण नहीं है।
यदि स्वर्गादिककी रचना सुनकर वहाँ राग हो, तो परलोक सम्बन्धी होगा; उसका
कारण पुण्यको जाने तब पाप छोड़कर पुण्यमें प्रवर्ते इतना ही लाभ होगा; तथा द्वीपादिकको
जानने पर यथावत् रचना भासित हो तब अन्यमतादिकका कहा झूठ भासित होनेसे सत्य श्रद्धानी
हो और यथावत् रचना जाननेसे भ्रम मिटने पर उपयोगकी निर्मलता हो; इसलिये वह अभ्यास
कार्यकारी है।
तथा कितने ही कहते हैं — करणानुयोगमें कठिनता बहुत है, इसलिये उसके अभ्यासमें
खेद होता है।
उनसे कहते हैं — यदि वस्तु शीघ्र जाननेमें आये तो वहाँ उपयोग उलझता नहीं है;
तथा जानी हुई वस्तुको बारम्बार जाननेका उत्साह नहीं होता तब पापकार्योंमें उपयोग लग
जाता है; इसलिये अपनी बुद्धि अनुसार कठिनतासे भी जिसका अभ्यास होता जाने उसका
अभ्यास करना, तथा जिसका अभ्यास हो ही न सके उसका कैसे करे?
तथा तू कहता है — खेद होता है। परन्तु प्रमादी रहनेमें तो धर्म है नहीं; प्रमादसे
सुखी रहे वहाँ तो पाप ही होता है; इसलिये धर्मके अर्थ उद्यम करना ही योग्य है।
ऐसा विचार करके करणानुयोगका अभ्यास करना।
चरणानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
तथा कितने ही जीव ऐसा कहते हैं — चरणानुयोगमें बाह्य व्रतादि साधनका उपदेश
है, सो इनसे कुछ सिद्धि नहीं है; अपने परिणाम निर्मल होना चाहिये, बाह्यमें चाहे जैसे प्रवर्तो;
इसलिये इस उपदेशसे पराङ्मुख रहते हैं।
उनसे कहते हैं — आत्मपरिणामोंके और बाह्यप्रवृत्तिके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
क्योंकि छद्मस्थके क्रियाएँ परिणामपूर्वक होती हैं; कदाचित् बिना परिणाम कोई क्रिया होती
है, सो परवशतासे होती है। अपने वशसे उद्यमपूर्वक कार्य करे और कहे कि ‘परिणाम
इसरूप नहीं हैं’ सो यह भ्रम है। अथवा बाह्य पदार्थका आश्रय पाकर परिणाम हो सकते
हैं; इसलिये परिणाम मिटानेके अर्थ बाह्य वस्तुका निषेध करना समयसारादिमें कहा है; इसीलिये
रागादिभाव घटने पर अनुक्रमसे बाह्य ऐसे श्रावक-मुनिधर्म होते हैं। अथवा इसप्रकार श्रावक-
मुनिधर्म अंगीकार करने पर पाँचवें-छठवें आदि गुणस्थानोंमें रागादि घटने पर परिणामोंकी प्राप्ति
होती है — ऐसा निरूपण चरणानुयोगमें किया है।